गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 175
अथवा यह भी हो सकता है कि अपने शत्रुओं के मुकाबले में अपने मित्रो की सहायता करने के लिये , अशुभ और अत्याचार के मुकाबले धर्म और न्याय पक्ष समर्थन करने के लिये उसका हृदय और उसकी कुलमर्यादा उसे विवश करें । परंतु मुक्त पुरूष की दृष्टि इन परस्पर - विरोधी मानदंडों के परे जाकर केवल यह देखती है कि विकासशील धर्म की रक्षा या अभ्युदय के लिये आवश्यक वह कौन - सा कर्म है जो परमात्मा मुझसे कराना चाहते हैं। उसका अपना निजी मतलब तो कुछ है ही नहीं , उसको किसी से कोई व्यक्तिगत रागद्वेष तो है ही नहीं , उसके पास कर्म - विषयक कसकर बंधा हुआ मानदंड तो है ही नही जो मनुष्यजाति की उन्नति की ओर बढ़ती हुई सुनम्य गति में रोड़ा अटका दे या अनंत की पुकार के विरूद्ध खड़ा हो जाये। उसके कोई व्यक्तिगत शत्रु नहीं जिन्हे वह जीतना या मारना चाहे , वह सिर्फ ऐसे लोग को देखता है जिन्हें परिस्थिति ने और पदार्थमात्र मे निहित संकल्प ने उसके विरूद्ध लाकर इसलिये खड़ा कर दिया है कि वे प्रतिरोध के द्वारा भवितव्यता की गति की सहायता करें।
इन लोगों के प्रति उसके मन में क्रोध या घृणा नहीं हो सकती क्योंकि दिव्य प्रकृति के लिये क्रोध और घृणा विजातीय चीजें हैं। असुर की अपने विरोधी को चूर - चूर करने ओर उसका सिर उतार लेने की इच्छा , राक्षस की संहार करने की निर्दयतापूर्ण लिप्सा का मुक्त पुरूष की स्थिरता, शांति , विश्वव्यापी सहानुभूति और समझ में होना असंभव है। उसमे किसी को चोट पहुंचाने की इच्छा नहीं होती अपित सारे संसार के लिये मैत्री और करूणा का भाव होता है , पर यह करूण उस दिव्य आत्मा की करूणा है जो मनुष्यों को अपने उच्च स्थान से करूणाभरी दृष्टि से देखता है , सब जीवों को अपने अंदर प्रेम से ग्रहण करता है , यह सामान्य मनुष्य की वह दीनताभरी कृपा नहीं हो जो हृदय , स्नायु और मांस का दुर्बल कंपनमात्र होती है। वह शरीर से जीवित रहने को भी उतनी बडी़ चीज नही मानता , बल्कि शरीर के परे जो आत्म - जीवन है उसे जीवन मानता और शरीर को केवल एक उपकरण समझता है। वह सहसा संग्राम और संहार में प्रवृत्त न होगा , पर यदि धर्म के प्रवाह में युद्ध करना ही पड़े तो वह उसे स्वीकार करेगा और जिनके बल और प्रभुत्व को चूर्ण करना है ओर जिनके विजयी जीवन के उल्लास को नष्ट करना है उनके साथ भी उसकी सहानुभूति होगी और वह उदार समबुद्धि ओर विशुद्धि बोध के साथ ही युद्ध में प्रवृत्त होगा। कारण मुक्त पुरूष सबमें दो बातों को देखता है , एक यह कि भगवान् घट - घट में समरूप में वास करते हैं और दूसरी यह कि यह जो नानाविध प्राकटय वह अपनी क्षणस्थायी परिस्थिति में ही विषम है ।
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