गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 188
सब कामनाएं आत्मा में वैसे ही प्रवेश करेंगी जैसे नदी - नद समुद्र में, और तब भी आत्मा को अचल और परिपूरित परंतु अक्षुब्ध रहना होगा, इस प्रकार अंत में सब कामनाओं का त्याग किया जा सकता है । इस बात पर बार - बार जोर दिया गया है कि काम - क्रोधमय मोह से छुटकारा पाना मुक्त - पद लाभ करने के लिये अत्यंत आवश्यक है और इसलिये हमें इनके ध्क्कों को सहना सीखना पड़ेगा और यह कार्य इन धक्कों के कारणों का सामना किये बिना नहीं हो सकता । ‘‘ जो इस शरीर में काम - क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सह सकता है वही योगी है , वही सुखी है।”२ तितिक्षा, अर्थात् सहने का संकल्प और शक्ति
इसका साधन है। ‘‘ शीत और उष्ण , सुख और दुःख देनेवाले मात्रस्पर्श अनित्य हैं , और आते - जाते रहते हैं , इन्हें सहना सीख। जिस पुरूष को ये व्यथित या दुःखी नहीं करते, सुख - दुःख में जो सम और धीर रहता है वही अपने - आपको अमृतत्त के लिये उपयुक्त बना लेता है।” जिसकी आत्मा समत्व को प्राप्त हो गयी है उसे दुःख सहना होता है , पर वह दुःख से घृणा नहीं करता , उसे सुख ग्रहण करना होता है , पर वह सुख से हर्षित नहीं होता । शारीरिक यंत्रणाओं को भी सहिष्णुता के द्वारा जीतना होता है और यह भी स्टोइक साधना का एक अंग है।
जरा , मुत्यु , दुःख यंत्रणा से भागने की जरूरत नहीं है , प्रत्युत इन्हें स्वीकार करके उदासीनता से परास्त करना है।१ प्रकृति के निम्नस्तरीण छभ्दारूपों से भीत होकर भागना नहीं , बल्कि ऐसी प्रकृति का सामना करके उसे जीतना ही पुरूषसिंह की तेजस्विनी प्रकृति का सच्चा सहज भाव है। ऐसे पुरूष से विवश होकर प्रकृति अपना छभ्दवेश उतार फेंकती है और उसे असली आत्मस्वरूप दिखा देती है , जिस स्वरूप में वह प्रकृति का दास नहीं , बल्कि उसका स्वराट् सम्राट् है।परंतु गीता इस स्टोइक साधना को , इस वीरधर्म को उसी शर्त पर स्वीकार करती है जिस शर्त पर वह तामसिक निवृत्ति को स्वीकार करती है, अर्थात् इसके ऊपर ज्ञान की सात्विक दृष्टि , इसके मूल में आत्मसाक्षात्कार का लक्ष्य और इसकी चाल में , दिव्य स्वभाव की ओर उध्र्वागति होनी चाहिये । जिस स्टोइक साधना के द्वारा मानव - स्वभाव के सामान्य स्नेहभाव कुचल डाले जाते हैं वह जीवन के प्रति तामसिक क्लांति , निष्फल नैराश्य और ऊसर जड़त्व की अपेक्षा तो कम खतरनाक है , क्योंकि यह जीव के पौरूष और आत्म - वशित्व को बढ़़ाने वाली है , फिर भी यह अमिश्र शुभ नहीं है , क्योंकि इससे सच्ची आध्यात्मिक मुक्ति नहीं मिलती , बल्कि इससे हृदयहीनता और निष्ठुर ऐकांतिकता आ सकती है। गीता की साधना में स्टोइक समता का जो समर्थन मिलता है वह इसीलिये है कि यह साधना क्षर मानव - प्राणी को मुक्त अक्षर पुरूष का साक्षात्कार करने में, और इस नवीन आत्मचेतना को प्राप्त करने में, साथ और सहायता दे सकती है।
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