गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 201

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गीता-प्रबंध
20.समत्व और ज्ञान

इस अवस्था में हमारे अंदर दूसरों के व्यवहार के प्रति भी समता रहेगी। उनके किसी व्यवहार से इस आंतरिक एकत्व , प्रेम और सहानुभूति में कोई अंतर न पडे़गा, क्योंकि सबमें जो एक आत्मा है, समस्त प्राणियों में जो भगवान् हैं उनका प्रत्यक्ष अनुभव होने से ही ये भाव उदित हुए हैं। परंतु इसका यह मतलब नहीं कि दूसरे लोग चाहे जेसा व्यवहार करें, उन्हें और उनके व्यवहारों को नत होकर सह या मान लिया जायेगा, स्वयं निष्क्रिय रहा जायेगा और उनका कोई प्रतिरोध न होगा;[१] यह नहीं हो सकता , क्योंकि जगदीश्वर के जागतिक संकल्प का उपकरण होकर सतत उनकी आज्ञा का पालन करने का यही तो अभिप्राय है कि जगत् में विरोधी शक्तियों का जो संघर्ष चल रहा है उसमें उन वैयक्तिक कामनाओं से युद्ध करना होगा जो अहंकार की तुष्टि में प्रवृत्त हैं। इसीलिये अर्जुन को प्रतिरोध करने , लड़ने और जीतने का आदेश दिया गया है; पर साथ - साथ यह भी आदेश है कि लड़ना होगा द्वेष - रहित होकर, व्यक्तिगत काम - क्रोध को छोड़कर , शत्रुता का परित्याग करके , क्योंकि मुक्त पुरूष में ये मनोविकार नहीं होते। निरंहकार होकर लोक - संग्रह के लिये कर्म करना, लोगों को भगवन्मार्ग पर कायम रखने और चलाने के लिये कर्म करना वह धर्म है जो भगवान् के साथ, विश्व - पुरूष के साथ अपनी अंतरात्मा की एकता से सवभावतः उत्पन्न होता है, क्योंकि विश्व के अखिल कर्म का संपूर्ण अभिप्राय और लक्ष्य यही है।
इस कर्म का सब जीवों के साथ, यहां तक कि हमारे विरोधी और शत्रु बनकर आने वालों के साथ भी हमारी एकता से कोई विरोध नहीं । कारण भगवान् का जो लक्ष्य है वही उनका भी लक्ष्य है, क्योंकि वही सबका छिपा हुआ लक्ष्य है, उन जीवों का भी जिनके बहिर्मुख मन अज्ञान और अहंकार के मारे इस पथ से च्युत होकर भटका करते हैं और अपनी अंत:प्रेरणा का प्रतिरोध किया करते हैं। उनका विरोध करना और उन्हें हराना ही उनकी सबसे बड़ी बाहरी सेवा है। इस दृष्टि के द्वारा गीता उस अपूर्ण सिद्धांत का निराकरण कर देती है जो समता की एक ऐसी शिक्षा से उत्पन्न हो सकता था जिसमें अव्यावहारिक रूप से समस्त संबंधों की अवहेलना की जाती है और जो उस दुर्बलकारी प्रेम की शिक्षा से उत्पन्न हो सकता था जिसके मूल में ज्ञान का सर्वथा अभाव होता है। परंतु, वह असली तत्व को अक्षुण्ण रखती है। वह अंतरात्मा के लिये सबके साथ एकत्व है, हृदय के लिये अचल विश्व - प्रेम, सहानुभूति और करूणा है; परन्तु हाथों के लिये नैव्र्यक्तिक रूप से हित - साधन करने का स्वातंत्र्य , ऐसा हित - साधन नहीं जो भगवान् की योजना का कोई विचार न करे या उसके विरूद्ध जाकर इस या उस व्यक्ति के सुख - साधन में लग जाये, बल्कि ऐसा हित - साधन जो सृष्टि के हेतु का सहायक हो, जिससे मनुष्यों को अधिकाधिक सुख और श्रेय प्राप्त हो ,सब भूतों का संपूर्ण कल्याण हो।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 111.33

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