गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 209

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गीता-प्रबंध
21.प्रकृति का नियतिवाद

इसलिये जब हमें यह भेद जान लेना होगा कि प्रकृति में वह कौंन - सी चीज है जो उसका असली स्वरूप , उसका अपना और अनिवार्य कार्य है जिसका दमन या निग्रह करना बिलकुल हितकारी नहीं और फिर वह कौंन - सी चीज है जो असली नहीं गौण है, जो प्रकृति का विक्षेप , विभ्रम और विकार है जिसे हम अपने वश में करना होगा; निग्रह और संयम में भी भेद है। निग्रह प्रकृति पर अपनी इच्छा तीक्ष्ण बल - प्रयोग है जिससे आगे चलकर जीव की स्वभाविक शक्तियां अवसाद को प्राप्त होती हैं, और संयत उच्चतर आत्मा का निम्नतर आत्मा को संयमित करना है जिससे जीव की स्वभाविक शक्तियों को अपना स्वभावनियत कर्म और उसे करने का परम कौशल प्राप्त होता है, छठे अध्याय के उपोद्घात में संयम का यह स्वरूप बहुत ही स्पष्ट रूप में बताया गया है। ‘‘ आत्मा से आत्मा का उद्धार करे, आत्मा को (भोगविलास या निग्रह के द्वारा) अवसत्र होकर नीचे न गिरने दे; क्योंकि आत्मा ही आत्मा का मित्र है और आत्मा ही आत्मा का शत्रु । उस मनुष्य की आत्मा उसका मित्र है जिसकी (उच्चतर ) आत्मा के द्वारा (निम्नतर) आत्मा को जीत लिया गया है; परंतु जिस मनुष्य ने अपनी (उच्चतर ) आत्मा पर अधिकार नहीं किया है।
उसकी (निम्नतर ) आत्मा उसके लिये शत्रु जैसी है और वह शत्रुवत् आचरण करती है।’’[१]जब कोई अपनी आत्मा को जीत लेता है और पूर्ण आत्मजय और आत्मवत्ता की अविचल स्थिति को प्राप्त होता है तब उसकी परम आत्मा उसकी नीम आत्मा उसकी बाह्म सचेतन मानव - सत्ता में भी स्थिर - प्रतिष्ठित अर्थात् ‘समाहित‘ हो जाती है। दूसरे शब्दों में निम्नतर आत्मा को उच्चतर आत्मा से , प्राकृत आत्मा को आध्यात्मिक आत्मा के वश में करना ही मनुष्य ही सिद्धि और मुक्ति का मार्ग है।यहां प्रकृति के नियतिवाद की मर्यादा बांध दी गयी है, उसके क्षेत्र और अर्थ का सीमांकन किया गया है। यदि हम प्रकृति के सोपान में नीचे से ऊपर तक गुणों की क्रिया का निरीक्षण करें तो अधीनता से प्रभुत्व तक के संक्रमण को अच्छी तरह समझ सकेंगे। सबसे नीचे वे जीव हैं जिनमें तमोगुण का तत्व मुख्य है, ये वे प्राणी हैं जो अभी आत्मचैतन्य के प्रकाश तक नहीं पहुंचे और जो पूरी तरह प्रकृति के प्रवाह के द्वारा ही चालित होते हैं। परमाणु के अंदर भी एक इच्छाशक्ति है, पर यह स्पष्ट हो दीख पड़ता है कि यह स्वाधीन इच्छाशक्ति नहीं है, क्योंकि यह इच्छाशक्ति यंत्रवत् है और परमाणु इस पर स्वत्व नहीं रखता , बल्कि खुद ही इसके अधिकार में होता है। बुद्धि ,जो प्रकृति के अंदर बोध और संकल्प का तत्व है वह यहां वास्तव में स्पष्ट रूप से , जैसा कि सांख्य ने बताया है, जड़ है, यह अभी यांत्रिक, बल्कि अचेतन तत्व है, और इसमें सचेतन आत्मा के प्रकाश ने अभी तक ऊपरितल पर आने के लिये कोई प्रयास नहीं किया है। परमाणु अपने बुद्धितत्व से सचेतन नहीं है, वह उस तमागुण के कब्जे में है जिसने रजोगुण का पकड़ रखा है, सत्वगुण को अपने अंदर छिपा रखा है और स्वयं अपने प्रभुत्व का महान् उत्सव मनाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 65, 6

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