गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 21

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गीता-प्रबंध
3.मानव-शिष्य

इसका पहला परिणाम यह होता है कि उसकी इन्द्रियां और उसका शरीर भयानक संकट में पड़ जाते हैं, जिससे उपस्थित कर्म उसकी इन्द्रियां उसके भौतिक फल से और फिर जीवन से ही उसका चित्त उचाट हो जाता है। अहंभावयुक्त मानव जाति के प्राण जिस सुख और भोग के पीछे पड़े रहते हैं उनसे अर्जुन अपना मुंह फेर लेता है और क्षत्रियों के प्राणों के में विजय, राज्य, अधिकार और मनुष्यों पर शासन करने की जो प्रधान लालसा रहती है, अर्जुन उसका भी त्याग कर देता है। यह धर्म युद्ध आखिर किस लिये, इस बात को यदि व्यावहारिक अर्थ में विचार जाये, तो इसका सिवाय इसके और क्या हेतु है कि हमारी, हमारे भाईयों और हमारे दल वालों की बन आवे, हम लोग अधिकार रूढ़ हों, नाना प्रकार के भोग भोगें और संसार में राज करें? पर इन चीजों के लिये यदि इतनी बड़ी कीमत देनी पड़ती देनी पड़ती हो, तो ये व्यर्थ हैं। इन चीजों का स्वयं अपना मूल्य कुछ भी नहीं है, ये तो सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन को सुसंपन्न बनाये रखने के साधान मात्र हैं और ‘मैं अपने परिवार और जाति के लोगों का संहार करके उद्देश्यों को ही नष्ट करने जा रहा हूँ।’ माया-ममता पुकार उठती है, अरे, जिन्हें तुम शत्रु मानकर मारना चाहते हो वे तो अपने ही लोग हैं जिनके लिये जीवन की और सुख की कामना की जाती है।
सारी पृथ्वी का, या तीनों लोकों का राज लेकर भी इन्हें भला कौन मारना चाहेगा? इन्हें मारकर फिर यह जीवन ही क्या रहेगा? इसमें क्या सुख और संतोष होगा ! यह सब तो एक महापापमय कांड है ! अब वह नैतिक बोध संवेदनों और माया-ममता के विद्रोह का समर्थन करने के लिये जोग उठता है, यह पाप है, आपस के लोगों के मार-काट में न कहीं अन्याय है, न धर्म, विशेषतः जब कि मारे जाने वाले स्वभावतः पूज्य और प्रेम-भाजन हैं, जिनके बिना भार न होगा, इन पवित्र भावनाओं की हत्या करना कभी पुण्य नहीं हो सकता, यहीं नहीं, यह पाप है, आपस के लोगों की मार-काट में न नहीं हो सकता, यहीं नहीं, यह पाप है, दारुण पाप है। माना कि अपराध उनका है, आक्रमण का आरंभ उनकी ओर से हुआ, पाप उनसे शुरू हुआ, लोभ और स्वार्थांधता के पातकी वे ही हैं जिनके कारण यह दशा उत्पन्न हुई; फिर भी जैसी परिस्थिति है उसमें अन्याय का जवाब हथियारों से देना खुद ही एक पाप होगा और यह पाप उनके पाप से भी बढ़कर होगा क्‍योंकि वे तो लोभ से अंधे हो रहे हैं और अपने पाप का उन्हें ज्ञान नहीं, पर हम लोग तो जानते हैं कि यह लड़ाई लड़ना पाप है। लड़ाई भी इसलिये? कुल-धर्म की रक्षा के लिये, जाति-धर्म की रक्षा के लिये, राष्ट्र धर्म की रक्षा के लिये? पर इन्हीं धर्मों का तो इस गृह-युद्ध से नाश होगा; कुल नष्टप्राय होगा, जाति का चरित्र कलुषित होगा और उसकी शुद्धता नष्ट होगी, सनातन जाति धर्म और कुल नष्ट होंगे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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