गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 221
मनुष्य की आत्मा जब क्षरभाव में आती है तब व्यक्तित्व के खेल के साथ एक हो जाती और प्रकृति गत अहंभाव से अपने स्वरूप् - ज्ञान को डक लेती है और इस तरह अपने - आपको कर्मो का कर्ता समझने लगती है; और जब यह आत्मा अक्षर भाव मे आती है तब अपने - आपको नैव्र्यक्तिक भाव के साथ एक कर लेती है यह जान लेती है कि कन्नीं प्रकृति है, तो निष्क्रिय अकर्ता साक्षी पुरूष है । मनुष्य के मन को दो भावों में से किसी एक भाव की ओर झुकना पड़ता है, मन इन दो भावों को यह समझकर ग्रहण करता है कि ये सर्वथा अलग - अलग हैं- या तो वह गुण और व्यक्त्त्तिव के क्षरभावमय कर्म में जाकर प्रकृति के द्वारा बंध जाता है, नहीं तो अक्षर नैव्र्यक्तित्व में जाकर प्रकृति की क्रियाओं से मुक्त हो जाता है। परंतु यथार्थ में पुरूष का आत्मपद और अक्षरत्व तथा प्रकृति में कर्म और क्षरत्व, दोनों एक साथ ही रहते है। यदि आत्मा की सत्ता का ऐसा परम भाव न होता जिसके ये दोनों विपरीत पहलू हैं, पर इनमें से किसीसे सीमित नहीं है, तो इन परस्पर - विरोधी बातों के समाधान के लिये या तो मायावाद जैसे किसी वाद का आश्रय लेना पड़ता ।
या आत्मा को उभयविधि और विभक्त मानना पड़ता है। हमने देखा कि गीता इस परम भाव को पुरूषोत्तम की भावना में पाती है। वे परम पुरूष ईश्वर हैं, भगवान् हैं, वे अपनी प्रकृति को, गीता के शब्दों में स्वां प्रकृति को अपने अंदर से निकालते हैं, जो जीव में प्रकट होती है और प्रत्येक जीव के स्वभाव के द्वारा क्रियान्वित की जाती है जिसका उसमें स्थित भागवत सत्ता के धर्म के अनुसार , उसकी मोटी रूप - रेखा का हार एक जीव को अनुसरण करना पड़ता है। परंतु अहंकारमयी प्रकृति में गुणों की एक दूसरे पर होने वाली भ्रामक क्रिया के द्वारा यह क्रियानिवत होती है, यह त्रैगुण्यमयी माया है जिसे पार करना मनुष्य के लिये बड़ा कठिन है, फिर भी त्रिगुण को पार कर इसके परे पहुंचा जा सकता है। क्योंकि ईश्वर जब क्षरभाव के अंदर अपनी प्रकृति - शक्ति के द्वारा यह सब कर रहे होते हैं, तब भी वे अपने अक्षर - भाव में इस सबसे अलिप्त और उदासीन रहते हैं, वे सबके समदृष्टि से देखते, सबके अंदर प्रसारित रहते , और फिर भी सबके परे रहते हैं। तीनों अवस्थाओं में वे ही स्वामी हैं; उत्तम भाव में वे परमेश्वर हैं,
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