गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 229

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गीता-प्रबंध
23.निर्वाण और संसार में कर्म

यह वह आत्मा है जो हम अपने अंतःस्वरूप में हैं- हमारी व्यष्टि - सत्ता की परम आत्मा; पर वह आत्मा भी जो हम बाह्म रूप में हैं, यह समस्त विश्व - ब्रह्मांड की परम आत्मा है ,सब भूतों की आत्मा है। इस आत्मा में रहते हुए हम सबके अंदर रहेते हैं, और अब केवल अपनी अहंभावापन पृथक् सत्ता में ही नहीं रहते; इस आत्मा के साथ एकत्व लाभ करने से जगत् में जो कुछ उसके साथ निरंतर एकत्व हमारी सत्ता का स्वभाव, हमारे क्रियाशील चैतन्य की मूल भूमिका और हमारे कर्मो का मूल – प्रेरक - भाव बन जाता है।परंतु इसके बाद ही फिर दो श्लोक ऐसे आते हैं जो इस निर्णय में बाधक से प्रतीत होते हैं। ‘‘ बाह्म स्पर्शो को अपने अंदर से बाहर करके , भूमध्य में अपनी दृष्टि को स्थिर करके और नासभ्यंतरचारी प्राण तथा अपान को सम करके , इन्द्रिय, मन ओर बुद्धि को वश में रखने वाला मोक्ष - परायण मुनि, जिसके काम, क्रोध , भय दूर हो गये हैं, सदा ही मुक्त रहता है।”१ यहां इस योग - प्रणाली में एक दूसरी ही बात आती है जो कर्मयोग से भिन्न है और इस विशुद्ध ज्ञानयोग से भी भिन्न है जो विवेक और ध्यान से साधित होता है; इसके सब विशिष्ट लक्षण कायिक- मानसिक – तप साध्य राजयोग के लक्षण है। यह ‘ चित्तवृत्तिनिरोध’ प्राणायाम, प्रत्याहार आदि का ही वर्णन है।
ये सब मन ‘ समाधि की ओर ले जाने वाली प्रक्रियाएं हैं, इन सबका लक्ष्य मोक्ष है और सामान्य व्यवहार की भाषा में मोक्ष कहते हैं। संपूर्ण कर्म - चैतन्य के त्याग को , परब्रह्म में अपनी सत्ता के संपूर्ण अस्तित्व का लय कर देने को, केवल पृथक्कारी अहं -चैतन्य के त्याग को नहीं , तब क्या हम यह समझें कि गीता ने यहां इसका विधान इस अभिप्राय से किया है कि इसी लय को मुक्ति का चरम उपाय मनाकर ग्रहण किया जाये या इस अभिप्राय से कि यह बहिर्मुख मन को वश में करने का केवल एक उपाय या शक्तिशाली साधन मात्र है? क्या यही आखिरी बात, परम वचन या महाकाव्य है? हम इसे दोनों ही मान सकते हैं एक विशोष उपाय , एक विशिष्ट साधन भी और अंततः चरम गति का एक द्वार भी; अवश्य ही इस चरम गति का साधन लय हो जाना नहीं है, बल्कि विश्वातीत सत्ता में ऊपर उठ जाना है। क्योंकि यहां इस श्लोक में भी जो कुछ कहा गया है वह आखिरी बात नहीं है ; महाकाव्य , आखिरी बात, परम वचन तो इसके बाद के श्लोक में आता है जो इस अध्याय का अंतिम श्लोक है। वह श्लोक है- अर्थात् ‘‘ जब मनुष्य मुझे सब यज्ञों और तपों का भोक्ता , सब लोकों का महेश्वर, सब प्राणियों का सुहृद जानता है वह शांति को प्राप्त होता है।” यहां कर्मयोग की शक्ति ही फिर से आ जाती है; यहां इस बात पर आग्रह किया गया है कि ब्रह्मनिर्वाण की शांति के लिये यह आवश्यक है कि जीव को सक्रिय ब्रह्म का, विराट पुरूष का ज्ञान भी हो।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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