गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 23
वह इस जीवन या संसार के रहस्य और इस सबके उद्देश्य और हेतु को नहीं जानना चाहता, जानना चाहता है केवल धर्म। तथापि भगवान् उसे वही रहस्य बतलाना चाहते हैं जिसे जानने की अर्जुन ने कोई इच्छा नहीं की, कम-से-कम उसका उतना ज्ञान तो देना ही चाहते हैं जो उसे किसी उच्चतर जीवन की ओर ले जाने के लिये आवश्यक है; क्योंकि भगवान् चाहते हैं कि अर्जुन सब धर्मों को त्याग कर दे तथा उसका एक ही बृहत् और विशाल हो और वह हो भगवान् में सचेतन होकर निवास करना तथा उसी चेतना से युक्त होकर कर्म करना। इसलिये आचार के सामान्य मानकों के प्रति अर्जुन के अंतःकरण के विद्रोह की भली-भाँति जांच करके भगवान् उसे वह बतलाना आरंभ करते हैं, जिनका संबंध आत्मिक अवस्था से है, कर्म के किसी बाह्य विधान से बिल्कुल नहीं। अर्जुन को उपदेश दिया जाता है कि तुम आत्मा की समता निवास करो, कर्म के फलों की इच्छा त्याग दो, योगस्थ होकर अर्थात् भगवान् में ही सर्वथा स्थित होकर रहो और कर्म करो। अर्जुन को संतोष नहीं होता, वह जानना चाहता है कि यह स्थिति प्राप्त होने से मनुष्य के बाह्य कर्म पर क्या असर होगा, उसके भाषण पर, उसकी गति विधि पर, उसकी अवस्था पर इसका क्या परिणाम होगा, इसके कारण इस कर्मनिष्ठ सजीव मानव प्राणी में क्या अंतर होगा?
श्रीकृष्ण फिर भी, उन्हीं ज्ञान की बातों को विशद करते हैं जिन्हें वे यहां तक बता चुके हैं, कर्म के पीछे रहने वाली आत्मा की अपनी स्थिति का ही निर्देश करते हैं, स्वयं कर्म की कोई बात नहीं कहते। वह बतलाते हैं कि अपनी बुद्धि को कामना-वासना रहित समता की अवस्था में स्थिर रूप से रखो, बस इसी की जरूरत है। अर्जुन अधीर हो उठता है, क्योंकि जो आचार वह जानता था उसका कोई पता नहीं चलता, बल्कि यहां तो उसे संपूर्ण कर्म का अभाव ही दीख पड़ता है। अर्जुन बड़ी व्यग्रता से पूछता है, “यदि बुद्धि को आप कर्म से श्रेष्ठ बतलाते हैं, तो मुझे इस घोर कर्म में क्यों लगाते हैं? आपकी दुतरफा मिली हुई बात से मेरी बुद्धि घबरा जाती है, एक बात निश्चित रूप से बताइये, जिससे मैं श्रेय की प्राप्ति कर सकूं।“ फलवादी मनुष्य के लिये आध्यात्मिक विचार तथा आंतरिक जीवन का कोई मूल्य नहीं होता यदि धर्म की प्राप्ति न होती हो जिसे वह खोजता है। उसकी खोज यही होती है कि वह सांसारिक जीवन को सुव्यवस्थित करने के लिये कोई विधान पा जाये, भले ही जरूरत होने पर यह विधान उसे संसार को छोड़ देने के लिये क्यों न कहे, कारण यह भी है कि एक निश्चयात्मक बात भी होगी जिसको वह समझ सकेगा। परंतु संसार में रहकर कर्म करना और फिर उससे परे रहना, यह एक ऐसी “व्यामिश्र“ ( मिली हुई ) और चक्कर में डालने वाली बात है जिसे ग्रहण करने के लिये उसमें धैर्य नहीं। अर्जुन के शेष सभी प्रश्न और कथन इसी स्वभाव और चारित्र्य से उत्पन्न हुए हैं।
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