गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 242
हमारी सत्ता के केन्द्र का इस तरह ऊध्र्व में उठना और परिणामतः संपूर्ण जीवन तथा चेतना का रूपांतरित होना और फल - स्वरूप कर्म के बाह्म रूपों के बहुधा वैसे ही बने रहने पर भी उसके सारे आंतरिक भाव और हेतु का परिवर्तित हो जाना ही गीता के कर्मयोग का सारतत्व है। अपनी सत्ता को रूपांतरित करो, आत्मस्वरूप में नया जन्म लो और उसी नवीन जन्म से उस कर्म में लगो जिसके लिये तुम्हारी अंतःस्थित आत्मा ने तुम्हें नियुक्त किया है, यही गीता के संदेश का मर्म कहा जा सकता है। अथवा दूसरी तरह से , अधिक गौर और अधिक आध्यात्मिक आाशय के स्थान यूं कहें कि , जो कर्म तुम्हें यहां करना पड़ता है उसे अपने आंतर आध्यात्मिक नवजन्म का साधन बना लो , अपने दिव्य जन्म का साधना बना लो, और फिर दिव्य होकर, भगवान् के उपकरण बनकर लोकसंग्रह के लिये दिव्य कर्म करो। यहां दो बातें हैं जिन्हें स्पष्ट रूप से सामने रखना और समझना होगा , एक है इस परिवर्तन का मार्ग, अपनी सत्ता के केन्द्र को ऊध्र्व में उठा ले जाने का मार्ग , यह दिव्य जन्म - ग्रहण , और दूसरी बात है कर्म के बाह्म रूप का कोई महत्व नहीं और उसे बदलना जरूरी नहीं, यद्यपि उसके हेतु और परिधि बिलकुल बदल जायेंगे।
परंतु ये दोनों बातें कार्यतः एक ही हैं क्योंकि एक को समझने से दूसरी समझ में आ ही जाती है। हमारे कर्म के भाव का उदय हमारी सत्ता के स्वभाव तथा उसकी आंतरिक प्रतिष्ठा से होता है; परंतु स्वयं यह स्वभाव भी हमारे कर्म की धारा और उसके आध्यात्मिक प्रभाव से प्रभावित होता है; कर्म के भाव में बहुत बड़ा परिवर्तन हमारी सत्ता के स्वभव में और उसकी आंतरिक प्रतिष्ठा में परिर्तन लाता है ; यह सचेतन शक्ति उस केन्द्र को बदल देता है जिससे हम कर्म करते हैं । यदि जीवन और कर्म केवल मिथ्या - माया होते, जैसा कि कुछ लोग कहा करते हैं, यदि आत्मा का कर्म या जीवन के साथ कोई सरोकार न होता तो यह बात न होती; पर हमारे अंदर जो देही जीव है वह जीवन और कर्मो से अपने - आपको विकसित किया करता है और स्वयं कर्म तो उतना नहीं, पर जीव की कर्म करने की अतःशक्ति की क्रिया का रूप ही उसकी आत्मसत्ता के साथ उसका संबंध निर्धारित किया करता है। यही आत्मज्ञान के व्यावहारिक साधन - स्वरूप कर्मयोग की सार्थकता है।
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