गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 25
अर्जुन के अंतिम प्रश्न, कर्म-सन्यास और सूक्ष्मतर संन्यास ( जिसे करने को अर्जुन से कहा जा रहा है ) के बीच भेद को तथा पुरुष और प्रकृति, क्षेत्र और क्षेत्रज के बीच वास्तविक भेद को स्पष्टता से जानने के लिये हैं जो कि भागवत संकल्प से प्रेरित होकर निष्काम कर्म करने के अभ्यास के लिये अत्यंत आवश्यक है; और फिर अंत में अर्जुन प्रकृति के तीन गुणों के कर्म और उनके परिणाम सुस्पष्ट रूप से समझ लेना चाहता है, क्योंकि इन तीन गुणों को पार करने के लिये उससे कहा गया है। गीता में भगवान् गुरु अपने शिष्य को अपनी भागवत शिक्षा प्रदान कर रहे हैं। अहंभाव के साथ कर्म करते-करते शिष्य अपने आंतर विकास की उस अवस्था को प्राप्त हुआ है जिसमें उसके अहंता-ममतायुक्त जीवन और सामाजिक आचार-विचार का कोई मानसिक, नैतिक और भाविक मूल्य नहीं रह गया है, हठात् उनका दीवाला निकल गया है, ठीक इसी संधिक्षण में गुरु अपने शिष्य को पकड़ते और वे उसे इस निम्न जीवन से उठाकर पर चैतन्य में ले जाना चाहते हैं, कर्म की इस अज्ञानमयी आसक्ति से छुड़ाकर उस सत्ता को प्राप्त करना चाहते हैं, जो कर्म के परे हैं, पर है कर्म का उत्पादन और व्यवस्थापन करने वाली।
वे उसे अहंकार से निकालकर आत्मा में ले जाना चाहते हैं, मन-बुद्धि, प्राण और शरीर के जीवन से निकलकर मन-बुद्धि के परे की उस प्रकृति में ले जाना चाहते हैं जो भागवत स्थिति है। इसके साथ ही भगवान् को उसे वह चीज भी देनी है जो वह मांग रहा है और जिसे मांगने और ढूंढने की प्रेरणा उसे अपनी अंतःस्थित सत्ता के निर्देश द्वारा मिल रही है, अर्थात् इस जीवन और कर्म के लिये एक नवीन धर्म देना है जो इस अपर्याप्त सामान्य मनुष्य-जीवन के परस्पर-विग्रह, विरोध, उलझन और भ्रामक निश्चयों से परिपूर्ण विधान से बहुत ऊपर की चीज है, वह परम धर्म जिससे जीव कर्म-बंध से मुक्त होता है और फिर भी अपने भागवत स्वरूप की विशाल मुक्त स्थिति में कर्म करने और विजय संपादन करने की शक्ति से युक्त होता है। क्योंकि कर्म तो करना ही होगा, जगत् का अपने काल चक्र पूरे करने ही होंगे और मनुष्य की आत्मा को उस नियत कर्म की ओर से अज्ञानवश अपनी पीठ नहीं मोड़नी चाहिये जिसके लिये वह वहां आयी है। गीता की शिक्षा का संपूर्ण क्रम, उसकी व्यापक-से-व्यापक परिक्रमा में भी, इन्हीं तीन उद्देश्यों की पूर्ति के निमित्त है और उधर ही ले जाने वाला है।
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