गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 252
कि किस भगवान् से आने वाली कर्म - प्रेरणा या संकल्प त्रिगुणात्मिका प्रकृति की ही इच्छा नहीं हो सकती । यदि वह वही इच्छा हो तो इसका अनुसरण करने वाला जीव, अपने आत्म - भाव में न सही , पर अपने कर्म में तो त्रिगुण के बंधन से नहीं बच सकता ; और , यदि यही बात है तो यह प्रतिज्ञात मुक्ति मायामयी या अधूरी ही रही। ऐसा मालूम होता है कि यह संकल्प सत्ता के कार्यवाहक अंश का एक पहलू है, प्रकृति की मूल शक्ति और कार्यकारिणी वृत्ति है; इसे शक्ति , प्रकृति कहते हैं। तो तो क्या ऐसी भी कोई प्रकृति है जो त्रिगुणात्मिका प्रकृति के परे है? क्या कोई ऐसी भी सृष्टि - शक्ति , कोई प्रकृति है जो त्रिगुणात्मिका प्रकृति के परे है? क्या कोई ऐसी सृष्टि - शक्ति , कोई ऐसी संकल्प - शक्ति एवं कर्म - शक्ति है जो अहंकार, काम, मन , इन्द्रिय - समूह , बुद्धि और प्राणवेग से भिन्न है?इसलिये ऐसी संगिग्ध अवस्था में अब जो कुछ करता है वह यही है वह ज्ञान, जिसकी बुनियाद पर भागवत कर्म किया जायेगा, और अधिक पूर्णता के साथ बता दिया जाये। और, वह ज्ञान उन भगवान् के स्वरूप का ही समग्र और अखंड ज्ञान हो सकता है जो भगवान् संपूर्ण कर्म के मूल कारण हैं और जिनकी सत्ता के अंदर कर्मयोगी ज्ञान के द्वारा मुक्त हो जाता है, क्योंकि तब वह उस मुक्त आत्मा को जान लेता है जिसमें से यह अखिल कर्म - प्रवाह निकलता है और उसके मुक्त स्वरूप का भागी होता है। इसके अतिरिक्त, उस ज्ञान से वह प्रकाश मिलेगा जिससे गीता के प्रथम भाग के उपसंहार में जो बात कही गयी है उसकी यथार्थता सिद्ध होगी।
उसे आध्यात्मिक चैतन्य और कर्म के सब हेतुओं और शक्तियों के ऊपर , भक्ति की श्रेष्ठता स्थापित करनी होगी; वह ज्ञान सब प्राणियों के उन परमेश्वर का ज्ञान होगा जिनके प्रति जीव उस पूर्ण आत्म - समर्पण के साथ अपने - आपको उत्सर्ग कर सकता है जो प्रेम और भक्ति की पराकाष्ठा है। सातवें अध्याय के प्रारंभ के श्लोकों में भगवान् इसीका आरंभ करते हैं। ग्रंथ के शेष अध्यायों में फिर इसीकी परिणति हुई है। भगवान् कहते हैं, ‘‘ मुझमें अपने मन को असक्त करके और मुझे अपना आश्रय (जीव की चेतन सत्ता कर्म का संपूर्ण आधार, निवास और शरणस्थान ) बनाकर योग - साधन करने से किस प्रकार तुम मुझे समग्र रूप से जानोगे वह सुनो। मैं बिना कोई बात छोड़े ( क्योंकि छोड़ने से फिर संशय के लिये अवकाश रहेगा) , तुमसे वह ज्ञान विज्ञान- सहित कहूंगा जिसे जान लेने पर जानने की और काई बात बाकी नहीं रह जायेगी।”[१] कहने का अभिप्राय यह है कि अथात् सब कुछ भगवान् हैं और इसलिये यदि उनहें उनकी सब शक्तियों और तत्वों के साथ समग्र रूप से जान लिया जाये तो सब कुछ जान लिया जाता है , केवल विशुद्ध आत्मा ही नहीं बल्कि जगत्, कर्म और प्रकृति भी। तब जानने की और कोई चीज नहीं रह जाती , क्योंकि सब कुछ भगवान् की ही सत्ता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 7.2