गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 254
भगवान् की एक परा - प्रकृति है जो इस विश्व के अस्तित्व का यथार्थ मूल, इसकी मूलभूत सृष्टि - शक्ति और कर्म - शक्ति है; और दूसरी नीचे की अज्ञानमयी प्रकृति इसीसे उत्पन्न हुई है और इसकी अंधकारपूर्ण छाया है।इस पराप्रकृति के अंदर पुरूष और प्रकृति एक हैं। प्रकृति वहां पुरूष की संकल्प - शक्ति और कर्तृ - शक्ति है, पुरूष की स्वयं अभिव्यक्त होने की क्रिया है,- कोई पृथक् वस्तु नहीं, प्रत्युत स्वयं सशक्तिक पुरूष है।
यह पराप्रकृति केवल विश्व के कर्मो में अंतः स्थित भागतव शक्ति की उपस्थिति ही नहीं है। क्योंकि यदि ऐसा होता तो वह उस सर्वव्यापक आत्मा की ही निष्क्रिय उपस्थिति होती जो आत्मा सब पदार्थो में है या जिसके अंदर सब पदार्थ हैं और जिसकी सत्ता से विश्वकर्म होता है पर जो स्वयं कर्ता नहीं है। यह पराप्रकृति फिर सांख्यों का वह ‘ अव्यक्त ‘ भी नहीं है जो व्यक्त सक्रिय अष्टविध प्रकृति की आदि अव्यक्त बीज - स्थिति है जिसे उत्पादन मूल प्रकृति कहते हैं और जिसमें से उसके सब करण और कर्म - शक्तियां उत्पन्न होती हैं। और , न वेदांत - शास्त्र के अनुसार अव्यक्त का अर्थ करके यह कहा जा सकता है कि यह पराप्रकृति अवयक्त ब्रह्म या आत्मा के अंदर अवयक्त रूप से रहने वाली वह शक्ति है जिसमें से विश्व उत्पन्न होता है और जिसमें इसका लय होता है ।
पराप्रकृति यह है , पर यही नहीं , इससे भी अधिक बहुत कुछ है; यह तो उसकी केवल एक आत्म - स्थिति है। पराप्रकृति परम परम पुरूष की समग्र चिच्छशक्ति है जो जीव और जगत् के पीछे है ।यह अक्षर पुरूष के अंदर आत्मा में निमज्जित रहती है; यह वहां भी है, पर निवृत्त में, कर्म से पीछे हटी हुई ; यही क्षर पुरूष विश्व में बहिर्भुत होकर कर्म में प्रवृत्त होती है , प्रवृत्ति में आती है। यह प्रवृत्ति में अपनी सशक्तिक सत्ता के द्वारा ब्रह्म में सर्वभूतों को उत्पन्न करती और उन भूतों में उनके मूल आध्यात्मिक प्रकृति -रूप से प्रकट होती है जो उनकी बाह्मातंर प्राकृत क्रीड़ा का आधरभूत चिरंतन सत्य है। यही वह मूल भाव और शक्ति है जिसे ‘ स्वभाव’ कहते हैं जो सबके स्वयं होने , प्राकृत रूप में आने वाले स्वागत तत्व है, सबकी प्राकृत सत्ता का स्वांतःस्थित तत्व और ईश्वरी शक्ति है। त्रिगुण की साम्यावस्था इस पराप्रकृति - तत्व से उत्पन्न होने वाली एक परिमेय एवं सर्वथा गौण क्रीड़ामात्र है। अपना प्रकृति का यह सारा नामरूपतामक कर्म , यह अखिल मनोमय, इन्द्रियगत और बौद्धिक व्यापार केवल एक बाह्म प्राकृत दृश्य है जो उसी आध्यात्मिक शक्ति और ‘ स्वभाव ’ के कारण संभव होता है, उससे इसकी इसकी उत्पत्ति है और उसीमें इसका निवास है, उसीसे यह है। यदि हम केवल इस बाह्म प्रकृति में ही रहें और हमारे ऊपर इसके जो संस्कार होते हैं उन्हींसे हम जगत् को समझना चाहें तो हम कदापि अपने कर्ममय अस्तित्व के मूल वास्तविक तत्व को नहीं पा सकते ।
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