गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 257
सबका मूल स्वभाव आत्मभाव ही है, केवल नानात्व के निम्न भाव में वे कुछ दूसरी चीज अर्थात् शरीर, प्राण , मन, बुद्धि, अहंकार और इन्द्रिय- रूप प्रकृति दीख पड़ते हैं। पर ये बाह्म गौण व्युत्पन्न रूप हैं, हमारे स्वभाव और स्वसत्ता के विशुद्ध मूल स्वरूप नहीं। इस तरह में परमात्मा की परा प्रकृति से अपनी विश्वतीत सत्ता का मूलभूत सत्य और शक्ति तथा विश्वलीला का आध्यात्मिक आधार दोनों ही मिलते हैं । परंतु उस परा प्रकृति और इस अपरा प्रकृति को जोड़ने वाली बीच की कड़ी कहां है? मेरे अंदर , श्रीकृष्ण कहते हैं कि , यह सब, यहां जो कुछ है सब, अर्थात् क्षर जगत् की ये सब वस्तुएं जिन्हें उपनिषदों में प्रायः सर्वमिदम् पद से कहा गया है - सूत्र में मणियों के सदृश पिरोयी हुई हैं। परंतु यह केवल एक उपमा है जो एक हदतक ही काम दे सकती है, उसके आगे नहीं; क्योंकि यह सूत्र मणियों का केवल परस्पर संबंध ही जोड़े रहता है, इसके साथ मणियों का , सिवा इसके कि वह उनका परस्पर - संबंध - सूत्र है, उनकी एकता इसपर आश्रित रहती है, और कोई नाता नहीं। इसलिये हम उस उपमेय की ओर ही चलें जिसकी यह उपमा है। वास्तव में परमात्मा की परा प्रकृति अर्थात् परमात्मा की अनंत चेतनशक्ति ही , जो आत्मविद्, सर्वविद् और सर्वज्ञ है, इन सब गोचर पदार्थो को परस्पर संबद्ध रखती , उनके अंदर व्याप्त होती , उनमें निवास करती , उन्हें धारण करती और उन सबको अपनी अभिव्यक्ति की व्यवस्था के अदंर बुन लेता है।
यही एक परा शक्ति केवल सबके अंदर रहने वाली एक आत्मा के रूप में ही नहीं बल्कि प्रत्येक प्राणी और पदार्थ के अंदर जीव - रूप से, व्यष्टि - पुरूष - सत्ता के रूप से भी प्रकट होती है; यही प्रकृति के संपूर्ण त्रैगुण्य के बीज -तत्व-रूप से प्रकट होती है। अतएव प्रकृति के प्रत्येक पदार्थ के पीछे ये ही छिपी हुई अध्यात्म शक्तियां हैं।त्रैगुण्य का यह परम बीज तत्व त्रिगुण का कर्म नहीं , त्रिगुण - कर्म तो गुणों का ही व्यापार है , उनका आध्यात्मिक तत्व नहीं वह बीज - तत्व अंतस्थित आत्मतत्व है जो एक है, पर फिर भी इन बाह्म नाना नाम - रूपों की वैचित्र्यमयी अंतः शक्ति भी है। यह संभूति का , भगवान के द्वार भाव का मूलभूत सत्तत्व है और यही सत्तत्व अपने इन सब नाम - रूपों को धारण करता है और इसीके अंदर अहंकार , प्राण और शरीर के केवल बाह्म अस्थिर भाव हैं। परंतु यह बीजभूत का मूल विधान करने वाला यही स्वभाव है। यही अंतःशक्ति है; प्रकृति के संपूर्ण कर्म का यही बीज और यही उसके विकास का कारण है। प्रत्येक प्राणी के अंदर यह तत्व छिपा हुआ है, यह परात्पर भगवान् के ही आत्माविर्भाव से, मद्भाव, से निकलता और उससे संबद्ध रहता है। भगवान् के इस मद्भाव के साथ और स्वभाव का बाह्म भूतभावों के साथ अर्थात् भगवान् की परा प्रकृति का व्यष्टिपुरूष की आत्मप्रकृति के साथ और इस विशुद्ध मूल आत्मप्रकृति का त्रिगुणात्मिका प्रकृति की मिश्रित और द्वन्द्वमयी क्रीड़ा के साथ संबंध है उसीमें उस परा परा शक्ति और इस अपरा प्रकृति के बीच की लड़ी मिलती है।
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