गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 262
गीता कोई दार्शनिक तत्वालोचन का ग्रंथ नहीं है, यद्यपि प्रसंग से इसमें बहुत - से दार्शनिक सिद्धांत आ गये हैं; कारण इसमें किसी विशिष्ट दार्शनिक सिद्धांत का उल्लेख स्वयं उसीके प्रतिपादन के लिये नहीं किया गया है इसका प्रयोजन है परम सत्य को परम व्यावहारिक उपयोग के लिये ढूंढ़ना, तर्कबुद्धि या आध्यात्मिक ज्ञान - पिपासा की तृष्टि के लिये नहीं, बल्कि एक ऐसे सत्य के रूप में ढूंढ़ना जो हमारी रक्षा कर सके और हमारी वर्तमान मत्यं जीवन की अपूर्णता से अमर पूर्णता की ओर ले जाने वाला मार्ग हमारे लिये खुल जाये। इसलिये इस अध्याय के पहले चैदह श्लोकों में एक ऐसे मुख्य दार्शनिक सत्य का निरूपण किया गया है जिसका जानना यहां हमारे लिये आवश्यक है और फिर तुरंत ही बाद के सोलह श्लोकों में उसका व्यावहारिक उपयोग बताया गया है। यही कर्म , ज्ञान और भक्ति के समन्वय - साधन का आरंभ है, कर्म और ज्ञान का समन्वय तो इसे पहले हो ही चुका है।हमारे सम्मुख तीन शक्तियां हैं- परमसत्यस्वरूप श्रीपुरूषोत्तम ,जिनकी ओर हमें विकसित होना है,।
आत्मा और जीव , अथवा इसी बात को हम यूं कह सकते है कि एक परम पुरूष है, दूसरी ब्रह्म और तीसरी वह बहुरूप जीवात्मा जो हमारे आध्यात्मिक व्यक्तित्व का कालातीत मूल है, सत्य और सनातन व्यष्टि - पुरूष जो सीमित करने वाले अज्ञान से मुक्त हैं, पुरूषोत्तम की प्रकृति है। वही पराप्रकृति का आंतरिक कर्म सदा भागवत कर्म ही होता हैं इस परा भागवती प्रकृति की शक्ति ही अर्थात् परम पुरूष की सत्ता की चिन्मयी संकल्पशक्ति ही जीव के विशेष स्वरूप - गुण की विविध बीजभूत और आध्यात्मिक शक्ति के रूप में अपने - आपको प्रकट करती है; यही बीजभूत शक्ति जीव का स्वभाव है। इस आध्यात्मिक शक्ति से ही सीधे जो कर्म और जन्म होता है वह दिव्य जन्म और विशुद्ध आध्यात्मिक कर्म होता हैं अतः इससे यह निष्कर्ष निकला कि कर्म करते हुए जीव का यही प्रयास होना चाहिये कि वह अपने मूल आध्यात्मिक व्यष्टि - स्वरूप को प्राप्त हो और अपने कर्मो को उसीकी परमा शक्ति के ओज से प्रवाहित करे, कर्म को अपनी अंतरात्मा और अंतरतम स्वरूप - शक्ति से विकसित करे, न कि मन - बुद्धि की कल्पना और प्राणों की इच्छा से , और इस तरह अपने सब कर्मो को परम पुरूष के संकल्प का ही विशुद्ध प्रवाह बना दे, अपने सारे जीवन को भगवत - स्वभाव का गतिशील प्रतीक बना दे। परंतु इसके साथ ही यह त्रिगुणात्मिका अपरा प्रकृति भी है जो अज्ञान- विशिष्ट है और उसका कर्म अज्ञान - विशिष्ट , अशुद्ध, अलझा हुआ और विकृत होता है; यह निम्नतर व्यक्तित्व का, अहंकर का , प्राकृत पुरूष का कर्म होता है, आध्यात्मिक व्यष्टि - पुरूष का नहीं ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता अध्याय 7 श्लोक 15 – 27