गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 273
जब हम आत्मा में उनके साथ एक हाते हैं तो अपने - आपको खो नहीं देते , बल्कि अनंत की महामहिम परम सत्ता में स्थित अपने वास्तविक स्वरूप में आ जाते हैं। यह काम एक साथ तीन क्रियाओं के द्वारा होता है - (१) भगवान् की तथा अपनी पराप्रकृति के आधर पर अने सब कर्मो को करना और उनके द्वारा अपने पूर्ण स्वरूप का साक्षात्कार करना , (२) जिन भगवान् में यह सब कुछ है और जो स्वयं सब कुछ हैं उन्हें जानकर अपने स्वरूप को पूर्ण रूप से प्राप्त होना , और (३) इन सबसे अधिक अमोघ और परम समर्थ क्रिया - अपने कर्मो के अधीश्वर , अपने हृदय निवासी, अपने समग्र जाग्रत् जीवन के आधार उन समग्र और परम की ओर आकर्षित होकर सर्वभाव से प्रेम और भक्ति के द्वारा अपने - आपको उन्हें समर्पित कर देना। हम उन्हें जो हमारे सब कुछ के मूल हैं, हम वह सब कुछ समर्पित कर देते हैं जो कि हम हैं। हमारे सतत समर्पण - कर्म से हम जो कुछ जानते हैं वह सब उन्हींका ज्ञान और हमारा संपूर्ण कर्म उन्हींकी शक्ति की ज्योति हो जाता है। हमरे आत्मसमर्पण में जो वेगवान् प्रेमप्रवाह होता है वह हमें उन्हींके पास ले जाता और उनके स्वरूप का गभीरतम मर्म हमारे सामने खेलकर रख देता है ।प्रेम यज्ञ के त्रिसूत्र को पूर्ण करता और उत्तमं रहस्यम को खोलने की त्रिविध कुंजी को पूर्ण रूप से गढ़ लेता है।
हमारे आत्मसमर्पण में समग्र ज्ञान का होना उसकी कार्यक्षम शक्ति की पहली शर्त है। और इसलिये हमें सबसे पहले इस पुरूष को तत्वतः अर्थात् इसकी भागवत सत्ता की सब शक्तियों और तत्वों के रूप में , इसके संपूर्ण सामंजस्य के रूप में, इसके सनातन विशुद्ध स्वरूप तथा जीवनलीला के रूप में जाना होगा। परंतु प्राचीन मनीषियों की दृष्टि में इस तत्वज्ञान का सारा मूल्य बस इस मत्र्य जगत् से मुक्त होकर एक परम जीवन के अमृतत्व को प्राप्त करने की साधना में ही निहित था। इसलिये गीता अब यह बतलाती है कि यह मुक्ति भी, इस मुक्ति की परमावस्था भी किसी प्रकार गीता की अपनी आध्यात्मिक आत्मपरिपूर्णता की साधना का एक परम फल है। यहां गीता के कथन का यही आशय है कि पुरूषोत्तम का ज्ञान ब्रह्म का पूर्ण ज्ञान है। जो मुझे अपनी दिव्य ज्योति अपना उद्वार कर्ता, अपनी अंतरात्माओं को ग्रहण और धारण करने वाला मानकर मेरी शरण लेते हैं - भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि , जो जरामरण से , मत्र्य जीवन और उसकी सीमाओं से मुक्त होने के लिये मेरा आश्रय लेकर साधन करते हैं वे उस ब्रह्म को, संपूर्ण अध्यात्म- प्रकृति और अखिल कर्म को जान लेते हैं। और चूंकि वे मुझे जानते हैं और साथ ही जीव की अपरा प्रकृति और परा प्रकृति तथा यज्ञस्वरूप इस जगत्कर्म के स्वामी की सत्यता को जानतेहै , अतः वे इस भौतिक जीव से प्रयाण करने के नाजुक समय भी मेरा ज्ञान रखते हैं और उस क्षण में उनकी संपूर्ण चेतना मेरे साथ एक हो जाती है। अतः वे मुझे प्राप्त होते हैं।
« पीछे | आगे » |