गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 277
मनुष्य संसार में जन्म लेकर प्रकृति और कर्म के चक्कर में लोक - परलोक के चक्कर काटता रहता है। प्रकृति में स्थित - पुरूष - यही उसका सूत्र होता है। उसकी आत्मा जो कुछ सोचती , मननन करती और कम्र करती है , वह वही हो जाता है। वह जो कुछ रहा है उसीसे उसका वर्तमान जन्म बना ; और जो कुछ वह है , जो कुछ वह सोचता और इस जीवन में अपनी मृत्यु के क्षण तक करता है उसीसे , वह मृत्यु के बाद परलोकों में और अपने भावी जीवनों में जो कुछ बनने वाला है , वह निश्चित होगा। जन्म यदि ‘ होना ’ है तो मृत्यु भी एक ‘ होना ’ ही है , किसी प्रकार समप्ति नहीं। शरीर छूट जाता है , पर जीव , शरीर को छोड़कर अपने रास्ते पर आगे बढ़ता है। इस लोक से प्रयाण करने के संधिक्षण में वह जो कुछ हो उसीपर बहुत कुछ निर्भर है। क्योंकि मृत्यु के समय जिस संभमि के रूप पर उसकी चेतना स्थिर होती है और मृत्यु के पूर्व जिससे उसकी मन - बुद्धि सदा तन्मय रहती आयी है उसी रूप को वह प्राप्त होता है ; क्योंकि प्रकृति कर्म के द्वारा जीव के सब विचारों और वृत्तियों को ही कार्यान्वित किया करती है और यही असल में में प्रकृति का सारा काम है। इसलिये मानव - आधार में स्थित जीव यदि पुरूषोत्तम - पद लाभ करना चाहता है तो उसके लिये दो बातें जरूरी हैं , दो शर्तो का पूरा होना जरूरी है। एक यह कि इस पार्थिव लोक में रहते हुए उसका संपूर्ण आंतरिक जीवन उसी उसी आदर्श के अनुकूल गढ़ा जाये ; और दूसरी यह कि प्रयाण - काल में उसकी अभीप्सा और संकल्प वैसा ही बना रहे ।
भगवान् कहते हैं , ‘‘ जो कोई अंतकाल में इस शरीर को छोड़कर मेरा स्मरण करता हुआ प्रयाण करता है , वे मेरे भाव को प्राप्त होता है।” अर्थात् पुरूषोत्तम - भाव को , मद्भाव को प्राप्त होता है।[१] वह भगवान् के मूल स्वरूप के साथ एक होता है और यही जीव का परो भावः है , कर्म के अपने असली रूप में आकर अपने मूल की ओर जाने का परम फल है। जीव जब विश्वप्रकृति (अपरा प्रकृति ) की क्रीड़ा के पीछे - पीछे चलता है तब यह प्रकृति उसके पराप्रकृतिस्वरूप असली स्वभाव को ढांक देती है , इस तरह जीव का जो चित्स्वरूप है वह नानाविध भूतभाव को धारण करता , ततभ्दाव को प्राप्त होता है। इन सब भावों को पार कर जब वह अपने मूल स्वरूप में लौट आता है और इस लौट आने की वृत्ति अर्थात् निवृत्ति से होकर अपने सत्स्वरूप और सदात्मा को पा लेता है तो वह उस मूल आत्मपद को प्राप्त करता है जो निवृत्ति की दृष्टि से परम भाव को , ‘मभ्दाव ’ को प्राप्त होना है। एक अर्थ में हम कह सकते हैं कि इस तरह वह ईश्वर हो जाता है , क्योंकि अपने प्राकृत स्वरूप और सत्ता के इस परम रूपांतर के द्वारा वह भगवान् के ही स्वरूप के साथ एक हो जाता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 6.5