गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 310
परंतु इस पृथक्कर अहं - चेतना में सतत बने रहना और इसीको अपने सारे कर्मों का केन्द्र बना लेना अपने सत्स्वरूप ज्ञान से सर्वथा वंचित होना है । इससे आत्मा के प्रथभ्रष्ट करणों पर मोह का जो परदा पड़ता है वह एक ऐसा जादू है जो जीवन को एक निरर्थक चक्कर से बांध देता है । जब भगवदीय और सनातन नाप से नापा जाता है , तो उसकी सारी आशा , कर्म , ज्ञान व्यर्थ दीख पड़ते हैं , क्योंकि इससे महद् आशा का द्वार बंद होता , मुक्तिदायक कर्म छूट जाता , प्रकाश देने वाला ज्ञान हवा हो जाता है । यह वह मिथ्याज्ञान है जो दृश्य जगत् को देखता है पर उस दृश्य जगत् के सत्तत्व को नहीं देख पाता , यही वह अंधी आशा है जो क्षणभंगुर पदार्थों का पीछा करती पर सनातन को नहीं देख पाती , यह वह निष्फल कर्म है जिसके प्रत्येक लाभ को उससे होने वाली हानि लुप्त कर देती है ।
[१] सिसिफस की भांति अनंत कालतक केवल परिश्रम ही हाथ लगता हैं ।[२]जो लोग महात्मा हैं , जो अपने - आपको उस दैवी प्रकृति के प्रकाश और उदारता की ओर खोल देते हैं जिसे प्राप्त होना मनुष्य की सामथ्र्य के अंदर है , वे ही उस मार्ग पर हैं जो आरंभ में बहुत ही संकरा पर अंत में अत्यंत विशाल होता हुआ मुक्ति और पूर्णता की ओर ले जाता है । मनुष्य के अंदर जो दवत्व है उसकी वृद्धि करना मनुष्य का समुचित कर्म है ; उसके अंदर की निम्न आसुरी और राक्षसी प्रकृति को निरंतर दृढ़तापूर्वक दैवी प्रकृति में परिणत करना ही मानव जीवन का दक्षतापूर्वक निहित मर्म है । जैसे - जैसे यह वृद्धि होती जाती है , वैसे - वैसे आवरण हटता जाता है और जीव कर्म के उत्तरोत्तर महान् अभिप्राय को तथा जीवन के वास्तविक तथ्य को समझने लगता है। आंख खुल जाती है उन भगवान की ओर जो जो मनुष्य के अंदर हैं , उन भगवान् की और जो जगत् के अंदर हैं ; वह अंतर्मुखी होकर उस अनंत आत्मा को , उस अविनाशी को देखता है जिससे सारे भूत उत्पन्न होते हैं और जो सब भूतों के अंदर रहता है और जिसके द्वारा और जिसके अंदर यह सब कुछ बना रहता है , और उसीको बाहर की ओर जानने लगता है । अतः जब[३] यह प्रत्यक्ष आभास और ज्ञान जीव को अधिकृत कर लेता है तब उसकी सारी जीवनाकांक्षा भगवान् और अनंत के प्रति परम प्रेम और अथाह भक्ति बन जाती है।
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