गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 323

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
7.गीता का महाकाव्य

जो भगवत्संबंधी ज्ञान इनके निर्बाध अधिकार को अप्राप्त ही छोड़ देता है वह पूर्ण , सिद्ध और सर्वतः संतोषकारक नहीं हो सकता , न कोई ऐसा ज्ञान सर्वथा ज्ञानयुक्त हो सकता है जो आत्मानुसंधान की अपनी असहिष्णु संन्यासवृत्ति से भगवान् के इन विभिन्न मार्गों के पीछे रहे हुए आध्यात्मिक सतत्व का निषेध करता अथवा केवल ज्ञान के अभिमान से इन्हें समझता है।गीता के जिस केन्द्रस्थ विचार में उसके सब धागे एकत्र और एकीभूत होते हैं उसकी सारी महत्ता एक ऐसी भावना की समन्वय - साधकत्ता में है जिस भावना में जगत् के अंदर मानवजीव की समूची प्रकृति को मान्यता मिलती और एक विशाल और ज्ञानयुक्त एकीकरण द्वारा उसकी उस परम सत्य , शक्ति , प्रेम , सत्स्वरूप - संबंधिनी बहुविध आवश्यकता का औचित्य सिद्ध होता है जिसकी ओर हमारा मानव भाव संसिद्धि और अमृत्तत्व तथा उत्कृष्ट आनंद , शक्ति और शांति की खोज में मुड़ा करता है। ईश्वर , मनुष्य और जागतिक जीवन को एक अतिव्यापक दृष्टि से देखने का यह एक प्रबल और विशाल प्रयास है। अवश्य ही यह बात नहीं है कि गीता के इन अठारह अध्यायों में सब कुछ हा गया हो और एक भी बात छूटी न हो , कोई आध्यात्मिक समस्या अब भी ऐसी न बची हो जिसे हल करना बाकी हो ; परंतु फिर भी इस ग्रंथ में ज्ञान की इतनी विस्तृत भूमिका बांधी जा चुकी है कि हम लोगों के लिये इतना ही काम बाकी है।
कि जो जगह इसमें खाली हो उसे भर दें , जो बीजरूप में हो उसे विकसित करें , संशोधित करें , जहां अधिक जोर देना हो वहां अधिक जोर दें , इसमें से जो विचारणीय बातें निकल सकती हों उन्हें निकालें , जो बात संकेतमात्र से कही गयी हो उसका विस्तार करें और जो अस्पष्ट हो उसे विशद करें ताकि हमारी बुद्धि का और जो कुछ तकाजा हो , हमारे आत्मभाव के लिये और जो कुछ आवश्यक हो उसका कुछ पता चले। स्वयं गीता अपने पश्नों के अंदर से ही उनका कोई सर्वथा नया समाधान निकालकर सामने नहीं रखती जो व्यापकता उसका लक्ष्य है उसतक पहुंचने के लिये गीता को महान् दार्शनिक संप्रदायों के पीछे रहे हुए मूल औपनिषद वेदांत के समीप जाना पड़ता है ; क्योंकि उपनिषदों में ही हमें आत्मा , मानव जीव तथा समष्टि - जगत् का अत्यंत व्यापक , गंभीर , जीवंत और समन्वित दर्शन होता है। परंतु उपनिषदों में जो कुछ अंतज्र्ञानदृष्टि से प्राप्त ज्योतिर्मय मंत्ररूप और सांकेतिक भाषा से समाच्छन्न होने के कारण बुद्धि के सामने खुलकर नहीं आता उसे गीता तत्पश्चात्कालीन विचारणा और सुनिश्चित स्वानुभूति के प्रकाश से खोलकर सामने रखती है।गीता अपने समन्वय के ढांचे के अंदर उस तत्वानुसंधान को स्थान देती है जो ‘‘ अनिर्देश्य अव्यक्त अक्षर ” के ढूंढ़नेवाले उपासक किया करते हैं। इस अनुसंधान में लगनेवाले भी (मुझे) पुरूषोत्तम को - परमात्मा को - प्राप्त करते हैं। कारण उनका परम स्वतःसिद्ध स्वरूप अचिंत्य है , वे अचिन्त्यरूपम् हैं , वह रूप देशाकालाद्य परिच्छिन्न सर्ववस्तुस्वरूपों का कैवल्यस्वरूप है , बुद्धि के लिये सर्वथा अचिंतनीय ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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