गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 326
सब प्राणी और सब पदार्थ एक ही भागवत पुरूष के भूतभाव हैं ; सारी प्राणशक्ति एक ही प्रभु की शक्ति का व्यापार है ; सारी प्रकृति एक ही अनंत का आविर्भाव है। वे ही विश्व में स्थित ईश्वर हैं ; जीव उन्हींके आत्मस्वरूप का अंशरूप आत्मस्वरूप है। वे ही विश्व में स्थित विश्वेश्वर हैं ; दिशा और काल में अवस्थित यह सारा विश्व उन्हींका प्राकृत आत्म - विस्तार है।जीवन और परम जीवन के इस व्यापक दर्शन की उद्घाटन - परंपरा में ही गीतोक्त योग का एकीभूत अर्थगांभीर्य और अनुपम श्रीसंवर्धन है। ये परम पुरूष परेमेश्वर एक ही सर्व - भूताधिवासी अविकार्य अक्षर पुरूष हैं ; इसलिये इस अविकार्य अक्षर पुरूष के आत्मस्वरूप की ओर मनुष्य को जाग्रत् होकर उसके साथ अपने अंतःस्थ अवैयिक्तक स्वरूप को एक करना होता है। मनुष्य में वे ही परमेश्वर हैं जो उसकी सब क्रियओं के उत्पादक और चालक हैं , इललिये मनुष्य को इन स्वांतःस्थ ईश्वर की ओर जागना , उसके अपने अंदर घर बनाकर रहनेवाले भगवतत्व को जानना , उसे ढांकने और छिपानेवाले सब आवरणादिकों से ऊपर उठ आना और आत्मा के इन अंतरतम आत्मा के साथ , अपने चैतन्य के इस बृहत्तर चैतन्य के साथ , अपने सारे मन - वचन - कर्म के इन गुप्त स्वामी के साथ , अपने अंदर के इस स्वरूप के साथ जो उसके सारे विभिन्न भूतभावों का मूल उद्गाम और परम गंतव्य स्थान है , एकीभूत होना होता है।
ये ही वे परमेश्वर हैं जिनकी वह भागवती प्रकृति , हम जो कुछ हैं उसका उद्गम है , पर निम्न प्रकृति के विकारों से ढंकी है ; इसलिये मनुष्य को अपनी निम्न बाह्म प्रकृति से , जो त्रुटिपूर्ण और तत्र्य है , पीछे हटकर अपनी मूल अमृतस्वरूपा शुद्ध बुद्ध भागवती प्रकृति को प्राप्त होना होता हैं ये परमेश्वर सब पदार्थो के अंदर एक हैं , वह आत्मा हैं जो सबके अंदर रहती है और जिसके अंदर सब रहते और चलते - फिरते हैं ; इसलिये मनुष्य को सब प्राणियों के साथ अपना अपना आत्मैक्य ढूंढ़ निकालना , सबको उस एक आत्मा के अंदर देखना और उस आत्मा को सबके अंदर देखना, सब पदार्थों और प्राणियों को , सर्वत्र आत्मवत् देखना ओर तदनुसार अपने मन , बुद्धि और प्राण के सब कर्मो में सोचना , अनुभव करना और कर्म करना होता है। ये ईश्वर यहां अथवा और कहीं जहां जो कुछ उसके मूल हैं और वे अपनी ही प्रकृति के द्वारा ये अंसख्य पदार्थ और प्राणी बने हैं , इसलिये मनुष्य को सब जड़ और चतन पदार्थो में उन्हींको देखना और पूजना होता है ; सूर्य में , नक्षत्र में , फूल में , मनुष्य और प्रत्येक जीव में, प्रकृति के सब रूपों और वृत्तियों तथा गुणों और शक्तियों में वासुदेवः सर्वमितिः जानकर उन्हींके अविर्भाव का पूजन करना होता है।
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