गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 333

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
7.गीता का महाकाव्य

परंतु अनंत सत्ता का एक और स्वरूप ऐसा जिसे जाने और माने बिना मुक्तिप्रद ज्ञान के साधन की पूर्णता नहीं होती। वह स्वरूप है जगत के भागवत शासन का - भगवान् अपनी परा स्थिति से अध्यक्षरूप से जगत् की ओर देखते हैं और साथ ही सबके अंदर निवास कर अंतर्यामी रूप से सबको चलाते भी हैं परम पुरूष भगवान् स्वयं सारी सृष्टि बनते हैं और फिर भी उसके अनंत परे रहते हैं ; वे जगत् के आदि कारण हैं , ऐसे कारण नहीं हो अपनी सृष्टि के विषय में संकल्परहित और उससे अलग हों। वे ऐसे संकल्परहित स्त्रष्टा नहीं हैं जो अपनी जागतिक शक्ति के इन परिणामों की कोई जिम्मेदारी अपने ऊपर न लेते हों या जो उन्हें किसी अंध प्रकृति के यात्रिंक विधान पर अथवा किसी निम्न कोटि के ईश्वर पर अथवा दैव और आसुर तत्वों के संघर्ष पर छोड़े बैठे हों। वे कोई ऐसे सबसे अलग और लापरवाह साक्षी नहीं हैं जो इन सबके मिट जाने या अपने अचल मूल तत्व के लौट आने की ही केवल प्रतीक्षा करते हुए चुपचाप बैठे हों।
वे सब भुवनों और उनके अधिवासियों के महाशक्तिशाली परमेश्वर ‘ लोकमहैश्वर ’ हैं और वे ही केवल अंदर से नहीं बल्कि ऊपर से , अपने परम पद से सबका शासन करते हैं । विश्व का शासन कोई ऐसी शक्ति नहीं कर सकती जो विश्व के परे न हो। ईश्वरी शासन के हाने का अर्थ ही यह है कि कोई ऐसा सर्वशक्तिमान् शासक है जिसका स्वामित्व अबाध है , वह शासन ( बिना चलानेवाले के ) कोई अपने - आप चलनेवाली शक्ति नहीं न विश्व के बाह्यतः दीखनेवाली प्रकृति द्वारा सीमित सृष्टि का कोई यांत्रिक विधान है। ईश्वरसत्तावादी जगत् में ईश्वर की ही सत्ता देखते हैं , जगत् के द्वन्द्वों से यह ईश्वरवाद भयविकंपित या सशंक नहीं होता बल्कि यह देखता है कि भगवान् सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् हैं , वे ही सबके एकमात्र मूल प्रभव हैं , वे ही यह जो कुछ हैं , अच्छा बुरा , सुख - दुःख, प्रकाश - अंधकार यह सब अनी सत्ता के ही अंश के रूप में अपने अंदर व्यक्त करते और जो कुछ व्यक्त करते हैं। उसका स्वयं ही शासन - नियामन करते हैं ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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