गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 335

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
7.गीता का महाकाव्य

इस मृत्युलोक के मत्र्य जीवों के बीच वह शुद्ध बुद्ध मुक्त होकर विचरता है। हर चीज का मूल्य वह अब केवल उसके वर्तमान और प्रतीयमान रूप से नहीं बल्कि उसके परम और वास्तविक रूप से आंकता है और इस तरह वह यहां से वहांतक की श्रृंखला की छिपी हुई कड़ियां और परस्पर -संबंध ढूंढ़ निकालता है ; वह सारे जीवन और कर्म को बोधपूर्वक उनके उच्चतम और असली उद्देश्य के साधन में लगाता और स्वांतःस्थ ईश्वर से प्राप्त होनेवाले प्रकाश और शक्ति के द्वारा उनका नियमन करता है। इस प्रकार वह मिथ्या बौद्धिक ज्ञान , मिथ्या मानसिक ओर ऐच्छिक प्रतिक्रिया , मिथ्या इन्द्रियगत ग्राहकता और उत्तेजना से अर्थात् उन सब चीजों से जिनसे पाप , प्रमाद और दुःख उत्पन्न होते हैं , मुक्त हो जाता है। क्योंकि इस प्रकार विश्वातीत परम पद और विश्वगत विश्वेशपद में स्थित होकर वह अपने तथा दूसरे हर व्यष्टिरूप को असली महत्तर रूप में देखता और अपने पार्थक्यजनक और अहंभावपन्न मन के मिथ्यातत्व और अज्ञान से मुक्त होता है। आध्यात्मिक मुक्ति का सदा यही सारभूत अभिप्राय होता है। इस तरह , गीतोमुक्त मुक्त पुरूष का ज्ञान निरपेक्ष और संबंधरहित निव्र्यक्तिक अव्यक्त , क्रियाहीन मौनस्वरूप ब्रह्मज्ञान नहीं है। क्योंकि मुक्त पुरूष की बुद्धि , मन और हृदय सतत ही इस भाव में स्थित रहते और यही अनुभव करते हैं कि जगत् के स्वामी सर्वत्र अवस्थित हैं और सबको कर्म में प्रवृत्त और परिचलित कर रहे हैं , भगवान् की इस विभूति को ( सर्वव्यापक भागवत्ता का ) वह जानता है।
वह यह जानता है कि उसकी आत्मा इस अखिल विश्वप्रपंच के परे है , पर वह यह भी जानता है कि ऐश्वर योग से , वह उसके साथ एक है। और वह इन विश्वातीत , विश्वगत और व्यष्टिगत सत्ताओं के हर पहलू को परम सत्य के साथ उसके यथावत् संबंध से देखता जिससे सबके परस्पर - संबंध का कुछ भी पता नहीं चलता अथवा अनुभव करनेवाली चेतना को उनके एक ही पहलू का ज्ञान होता है। न सब चीजों को एक साथ गड्ड - मड्ड ही देखता है - इस तरह देखता तो मिथ्या प्रकाश और अव्यस्थित कर्म को आमंत्रण देना है। वह परम पद में सुरक्षित रहता और विश्वप्रकृति के क्रियाक्लेशों से और काल और परिस्थिति की गड़बड़ी से प्रभावित नहीं होता। इन सब पदार्थो की सृष्टि और संहार के बीच में उसकी आत्मा सर्वथा अनुद्विग्न रहती और जो कुछ नित्य और आत्मस्वरूप है उसके साथ अडिग , अकंप औरअचल योग में लगी रहती है। इसके द्वारा वह योगेश्वर के दिव्य अध्यवसाय को देखता रहता और प्रशांत विश्वव्यापक भाव तथा सब पदार्थों और प्राणियों के साथ अपने एकत्वभाव से कर्म करता है। और सब पदार्थों के साथ इस प्रकार अतिघनिष्ठ रूप से सम्बद्ध होने से किसी प्रकार उसके आत्मा और मन भेदोत्पादक निम्न प्रकृति में नहीं फंसते , क्योंकि आत्मनुभूति की उसकी आधारभूमि कोई निकृष्टि प्राकृत रूप और गति नहीं होती बल्कि अंतःस्थ समग्र और परम आत्मभाव होती है। वह भगवान् के स्वभाव और धर्म को प्राप्त होता है , विश्वभाव से युक्त होने पर भी विश्वातीत और मन - प्राण - शरीर के विशेष व्यष्टिरूप में रहकर भी विश्वभावयुक्त होता है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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