गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 53
जीवन - संग्राम उसके आनंद और नशे की चीज बन जाता है , इसका कारण कुछ तो यह होता है कि संघर्ष करना उसका स्वभाव होता है, इस तरह कर्मण्यता में उसे सुख मिलता है और उसको अपनी शक्ति का अनुभव होता है और कुछ अंश में यह उसकी बृद्वि और स्वाभाविक आत्मविकास का साधन होता है। जब सत्वगुण की प्रधानता होती है तब मनुष्य संघर्ष के बीच धर्म , सत्य , संतुलित अवस्था, समन्वय, शांति, संतोष का कोई तत्व ढूंडा करता है । विशुद्ध सात्विक मनुष्य इसी का अनुसंधान अपने अंदर करता रहता है, चाहे केवल अपने लिये ही करे अथवा यह भाव चित्त में रखे कि जब चीज हासिल होगी तब वह दूसरों को भी दी जायेगी , किंतु यह काम साधारणतया सक्रिय जगत् - शक्ति के झगड़े और कोलाहल से निर्लिप्त होकर अथवा बाह्मतः उनका त्याग करके किया जाता है; पर सात्विक मनुष्य जब अंशतः राजसी वृत्ति स्वीकार करता है तो वह इसको संघर्ष और बाहरी गड़बड़झाले के ऊपर संतुलित अवस्था और सामंजस्य को लादने के लिये, युद्ध, अनबन और संघर्ष पर शांति, प्रेम और सामंजस्य को विजय दिलाने के लिये करता है ।
जीवन - समस्या को हल करने के लिये मनुष्य का मन जो – जो ढंग अख्तियार करता है चाहे सब ढग इन्ही गुणों मे से किसी एक गुण की प्रधानता से या इन गुणों के बीच संतुलन और सामंजस्य स्थापित करने के प्रयत्न से ही उत्पन्न होते है। परंतु एक ऐसी अवस्था आती है जब मन इस सारी समस्या से ही फिर जाता है और प्रकृति की तीन अवस्थाओं या त्रैगुण्य से प्राप्त होने वाले उपायों से असंतुष्ट होकर किसी ऐसे हल को ढूढ़ने लगता है जो त्रैगुण्य से परे या ऊपर हो । मन किसी ऐसी चीज में भाग जाना चाहता है जो गुणों के बाहर हो या जो समस्त गुणों से सर्वथा रहित और इसलिये कर्मरहित हो, अथवा किसी ऐसी चीज में जाना चाहता है जो इन तीनों गुणों से श्रेष्ठ हो ये गुण जिसके वश में हो , इसलिये वहां पहुंचकर वह कर्म भी कर सके और उसे अलिप्त और अप्रभावित भी रह सके, यानी निर्गुण या त्रिगुणातीत अवस्था में पहुंचाना चाहता है , निरपेद्वा शांति और निरूपाधि स्थिति के लिये अथवा प्रबल स्थिरता और श्रेष्ठतर स्थिति के लिये अभीप्सा करता है । इनमें से पहले भाव की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है संन्यास की ओर और दूसरे भाव की प्रवृत्ति होती है प्रकृति की मांगों तथा उसकी क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के चक्कर पर प्रभुत्व प्राप्त करने की ओर ,और इसका सिद्धांत होता है समता की स्थापना तथा आवेशों और कामना का आंतरिक त्याग ।
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