गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 62
यदि आत्मा का सत्य इतना महान् , विशाल और जीवन- मरण के परे न हो, यदि आत्मा सदा जनमती और मरती हो , तो भी प्राणियों की मृत्यु शोक का कारण नहीं होनी चाहिये । क्योंकि जीवन की आत्म - अभिव्यक्ति की यह एक अनिवार्य अवस्था है । उसके जन्म का अर्थ है उसका किसी ऐसी अवस्था से बाहर निकल आना जहां वह अस्तित्वहीन तो नहीं है, पर हमारी मत्र्य इद्रियों के लिये अप्रकट है , उसकी मुत्यु का अर्थ है उसी अप्रकट जगत् या अवस्था में लौट जाना जहां से वह इस भौतिक अभिव्यक्ति में फिर प्रकट होगा। भौतिक मन इन्द्रियां रोग - शय्या पर या रण क्षेत्र में होने वाली मृत्यु और उसके भय के संबंध में जो रोना - पीटना मचाती है वह प्राण की हायतोबाओं में सबसे अधिक अज्ञानमय है । मनुष्यों की मृत्यु पर हमारा शोक, उनके लिये अज्ञानभरा दु:ख है, जिनके लिये दुख करने का कोई कारण नहीं, क्योंकि न तो वे अस्तित्व से बाहर गये हैं न उनकी अवस्था में कोई दु:खद या भयानक परिवर्तन ही हुआ है। वे अपनी सत्ता में मृत्यु के उतने ही परे हैं जितने कि वे जीवन में रहते हुए थे। और जीवन की अपेक्षा इस अवस्था में अधिक दु:खी नहीं है। परंतु यथार्थ में उच्चतर सत्य ही वास्तविक सत्य है ।
सब कुछ वही आत्मा है वही “ एक ” है , वही परमात्मा है जिसे हम समझ से परे , अदभुत मानते हैं और उसके बारे में यही कहते और सुनते हैं । क्योकि हमारी इतनी खोज और ज्ञान की घेषणा के बाद भी तथा ज्ञानी जनों से इतना सब सुनने के बाद भी , उस “केवल” को कोई मावन - मन कभी नहीं जान सका है वह “केवल” , शरीर का स्वामी ही यहां इस जगत् की ओट में छिपा हुआ है; सारा जीवन उसकी छायामात्र है ; जीव का भौतिक अभिव्यक्ति में आना और म्रत्यु के द्वारा हमारा इस अभिव्यक्ति से बाहर निकल जाना , उसकी एक गौण क्रियामात्र है । जब हम अपने - आपको इस रूप में जान लेते हैं । तब यह कहना कि हम ने किसी की हत्या की या किसी ने हमारी हत्या की , निरर्थक है । सत्य तो एकता यही है और इसी में हमे रहना होगा कि मनुष्य की आत्मा की यात्रा के इस महान् चक्र में मानव- जीव - रूप से वह शाश्वत पुरूष ही स्वयं प्रकट होता है , जिसमें जन्म और मृत्यु उस यात्रा के मार्ग मे मील के पत्थर हैं , परलोक उसके विश्राम - स्थान हैं , जीवन की सारी अवस्थाऐं , चाहे सुखद हो या दु:खद , हमारी प्रगति , संग्राम और विजय के साधन हैं और अमरत्व हमारा धाम है जहां के लिये आत्मा यात्रा कर रही है ।इसलिये , गुरू कहते है कि हे भारत , इस वृथा शोक और हृदय - दौर्बल्य को दूर कर और लड़ । परंतु यह निष्कर्ष कहा से निकला?
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