गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 66

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गीता-प्रबंध
7.आर्य क्षत्रिय -धर्म

ऐसा करने से तू पाप का भागी न होगा - इस प्रकार अर्जुन की जो दलीलें थीं- उसका दु:खी होना, हत्याकांड से पीछे हटना, इसमें पाप का बोध और इस कर्म के दुष्परिणाम की आशंका - इन सबका उत्तर, अर्जुन की जाति और युग के उच्चतम ज्ञान और श्रेष्ट नैतिक आदर्श के अनुसार दिया जा चुका । आर्य योद्धा का यही धर्म है और इस धर्म का यह निर्देश है कि “ ईश्वर को जान , अपने - आपको जान ,मनुष्यों की मदद कर ; धर्म की रक्षा कर , भय, दुविधा और दुर्बलता को त्याग कर संसार में अपना युद्ध - कर्म कर । तू शाश्रत अविनाशी आत्मा है , तेरी आत्मा अमृतत्व के ऊध्र्वगामी मार्ग पर चलती हुई इस संसार में आयी हैं; जीवन - मरण कोई चीज नहीं है , दु:ख ओर क्लेश ओर कष्ट कोई चीज नहीं है , इन सबको जीतना और वश में करना होगा । अपने सुख , प्राप्ति और लाभ को मत देख, बल्कि ऊपर की ओर और चारों ओर देख , ऊपर उस प्रकाशमय शिखर को देख जिसकी ओर तू चढ रहा है , ओर अपने चारों आरे इस संग्राममय और संकटपूर्ण जगत् को देख जिसमें शुभ और अशुभ , उन्नति और अवनति परस्पर घोर संघर्ष में जकडे़ हुए हैं । लोग तुझे सहायता के लिये पुकारते है , तू उनका लौह पुरूष है , लोकनायक है , सहायता कर , लड, संहार कर अगर संहार के द्वारा ही जगत् की प्रगति हो, लेकिन जिसका संहार करे उससे घृणा न कर और न मरे हुए के लिये शोक ही कर। सर्वत्र उस एक ही आत्मा को जान, सब प्राणियों को अमर आत्मा और शरीर को सब मिट्टी जान । अपना काम स्थिर , दृढ और सम भाव से कर ,लड़ और शान से मैदान में काम आ , या फिर पराक्रम से विजय प्राप्त कर । क्योकि भगवान् ने और तेरे स्वभाव ने तुझे यही काम पूरा करने के लिये दिया है।“


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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