गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 69

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गीता-प्रबंध
8.सांख्य और योग

यहां इतना कह देना इसलिये आवश्यक है कि उन परिचित शब्दों के प्रयोग से कोई भ्रम उत्पन्न न हो जो यहां अपने परिचित और रूढ़ अर्थ की अपेक्षा अधिक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं । फिर भी सांख्य और योग दर्शनों में जो कुछ सारत्व है अर्थात् जो कुछ व्यापक ,उदार और सर्वमान्य सत्य है वह गीता मे स्वीकृत है , लेकिन गीता इन परस्पर - विरोधी दर्शनों के समान केवल उन्हीं सत्यों से बधी नहीं है । गीता का सांख्य उदार और वेदांतमानय सांख्य है, यह वह सांख्य है जिसके प्रथम सिद्धांत और तत्व उपनिषदों के वैदांतिक समन्वय में पाये जाते हैं और जिसका वर्णन बाद के विकास में अर्थात् पुराणों में भी आया है । गीता का योग वह आत्मनिष्ठ साधना और आतंरिक परिवर्तन है जो आत्मा को ढूढ़ निकालने या भगवान् से एकता लाभ करने के लिये आवश्यक है और राजयोग इसका एक विशिष्ठ प्रयोग मात्र है। गीता का आग्रह है कि सांख्य और योग परस्पर भिन्न , विसंगत और विरोधी शास्त्र नहीं है , बल्कि दोनों का सिद्धांत और उद्देश्य एक है , भेद केवल उनकी प्रक्रिया और मार्गारंभ में है । सांख्य भी योग है पर यह केवल ज्ञानमार्ग से आगे बढता है, अर्थात् इसका आरंभ हमारी सत्ता के तत्वों के बौद्धिक विवेक और विश्लेषण द्वारा होता है और अंत में यह सत्य का दर्शन कर उस पर अधिकार प्राप्त करके अपने लक्ष्य तक पहुंचता है ।
दूसरे ओर , योग कर्ममार्ग से अग्रसर होता है ; इसका प्रथम सिद्धांत है कर्मयोग; परंतु गीता की संपूर्ण शिक्षा से तथा कर्म शब्द की जो परिभाषा पीछे की गयी है उसे स्पष्ट है कि कर्म शब्द का प्रयोग गीता में बहुत व्यापक आदि में लिखा गया है और योग शब्द से गीता का अभिप्राय है एक ऐसा निस्वार्थ समर्पण जिसमे हमारी समस्त आंतरिक और बाह्म कर्मण्यताओं को यज्ञ - रूप से कर्म के ईश्वर को ,उस सनातन परब्रह्म को भेंट कर देना होता है जो जीव को समस्त ऊर्जा और तपस्या के स्वामी है । यह योग उस सत्य की साधना है जिसका दर्शन ज्ञान से होता है , इस साधाना की प्रेरक - शक्ति है एक प्रकाशमान भक्ति का भाव ,एक शांत या उग्र आत्मासमर्पण का भाव उस परमात्मा के प्रति जिन्हें ज्ञान पुरूषोत्तम के रूप में देखता है। पर सांख्य के सत्य क्या हैं ? सांख्य - दर्शन का यह नाम उसकी विश्लेषण - पद्धति के कारण पड़ा है ; सांख्या में हमारी सत्ता के तत्वों का विश्लेषण , संख्याकरण, विभाजन और विवेचन है, जिनके संघात या संघात के फल को ही मनुष्य की साधारण बुद्धि देख पाती है । सांख्य - दर्शन ने समन्वय - साधना की कोई चेष्टा नहीं की। इस दर्शन का मूलभूत सिद्धांत यथार्थ में द्वैत है, वह आपेक्षिक द्वैत नहीं जो वेदांत का महत्व, बल्कि यह वह द्वैत है जो सर्वथा निरपेक्ष और निराला है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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