गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 74
उनके रूपो में और उनके प्राकृतिक अंगों के संघातों के व्योरे में चाहे कितना भी भेद होता तो भी जीव पर पड़ने वाले जगत् - दृश्य का असर भिन्न - भिन्न प्रकार का न होता और सबकी अनुभूति भिन्न- भिन्न प्रकार की न होती। प्रकृति में होने वाले परिवर्तन से एक साक्षी या ऐसे पुरूष में यह केन्द्रित भेद, यह दृष्टचंतर और अथ से इति पर्यन्त अनुभूति का यह पार्थक्य न होना चाहिये था। इसलिये वेदांत के पुरातन ज्ञान से निकली हुई ,पर पीछे उससे विच्छित्र , सांख्य की पद्धति में बहु पुरूष का सिद्धांत एक न्याय - संगत आवश्यकता थी। विश्व और उसकी प्रकिृया का एक पुरूष और एक प्रकृति का व्यापार कहकर समझाया जा सकता है, किंतु इससे विश्व में सचेतन जीवों की बहुलता का समाधान नहीं होता ।फिर इतनी ही बड़ी एक और कठिनाई है । अन्य दर्शनों की तरह सांख्य ने भी अपना लच्य “मोच्क्ष” ही रखा है । हम कह आये हैं कि यह मोक्ष , पुरूष द्वारा प्रकृति के कर्मो से अपनी अनुमति हटा लेने से प्राप्त होता है , क्योंकि प्रकृति के ये कर्म उसी को आनंद देने के लिये है । परंतु , वास्तव मे, यह कहने का एक ढग है। पुरूष अकर्ता है और अनुमति देने या हटा लेने की जो क्रिया है वह यथार्थ में पुरूष की नहीं हो सकती , बल्कि यह अवश्य ही , स्वयं प्रकृति में होने वाली ऐसी गति है । विचार करने से मालूम होगा है कि यह भी बुद्धितत्व में - विवेकशील संकल्प में - होने वाली एक क्रिया है , उसकी एक प्रतिक्षेपक या प्रत्यावर्तनकारी गति मात्र है ।
बुद्धि ही मन के द्वारा होने वाली विषय - प्रतीत से अपना संबंध जोड़ती रही है ; बुव्द्धि ही विश्व - प्रकृति के द्वारा होने वाले कर्मो का व्यतिरेक और अन्वय करती और अहंकार की सहायता से प्रकृति के विचार, अनुभव और कर्म के साथ द्रष्टा पुरूष का तादात्म्य- साधन करती रही है। यही बुद्धि फिर विवेक द्वारा इस कटु और विघटनात्मक अनुभूति को प्राप्त होती है। कि प्रकृति के साथ पुरूष का तादात्म्य केवल भ्रम है; अंत में इसको यह विवेक होता है कि पुरूष प्रकृति से अलग है और यह सारा विश्वप्रपंच प्रकृति के गुणों की साम्याव्था का विक्षोभमात्र है । तब बुद्धि , जो एक ही साथ बुद्धि और संकल्प - शक्ति भी है , इस मिथ्यात्व से तुरंत हट जाती है जिसका वह अब तक पोषण करती रही है, और पुरूष बंधन - मुक्त हो जाता है और विश्वप्रपंच में रमने वाले मन का संग नहीं करता । इसका अन्तिम फल यह होता है कि प्रकृति की पुरूष में प्रतिभासित होने की शक्ति नष्ट हो जाती है। क्योंकि अहंकार का प्रभाव अब नष्ट हो गया है और बुद्धि - संकल्प के उदासीन हो जाने के कारण प्रकृति की अनुमति का साधन नहीं रहता : तब अवश्य ही उसके गुण आप ही साम्यावस्था को प्राप्त होगें , विश्व - प्रपंच बंद हो जायेगा और पुरूष को अपनी अचल शांति में लौट जाना होगा। परंतु यदि पुरूष एक ही होता तो बुद्धि - संकल्प के भ्रम से निवृत्त होते ही सारा विश्व - प्रपंच बंद हो जाता । पर हम देखते हैं कि ऐसा नहीं होता ।
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