गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 79

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
गीता-प्रबंध
8.सांख्य और योग

अपना प्रकृति में प्रत्येक जीव अहंकार के रूप में भासित होता है, परा प्रकृति में प्रत्येक जीव व्यष्टिरूप पुरूष है , अर्थात् बहुत्व उस एक का ही आध्यात्मिक स्वभाव है। यह व्यष्टि - पुरूष , भगवान् कहते हैं कि, स्वयं में हूं, इस सृष्टि में मेरा ही आंशिक प्राट्य है , यह मेरा ही अंश है, और इसमें मेरी सब शक्त्यिां मौजूद हैं ; यह साक्षी है , अुमंता है, कर्ता है , ज्ञाता है, ईश्वर है । यह अपरा प्रकृति में उतर आता है और यह समझता है कि मैं कर्म से बंधा हूं , इसलिये कि निम्न सत्ता को भोग सके ; यह इससे निवृत्त होकर यह जान सकता है कि मैं कर्म के बंधन से सर्वथा विनिर्मुक्त अकर्ता पुरूष हूं।यह त्रिगुण से ऊपर उठकर और कर्म - बंधन से मुक्त होकर भी कर्म कर सकता है , जैसे भगवान् कहते है कि मैं करता हूं , और पुरूषोत्तम की भक्ति पाकर और उनसे मुक्त होकर उनकी दिव्य प्रकृति का पूर्ण आनंद ले सकता है । गीता का विश्लेषण ऐसा है जो बाह्म सृष्टि - क्रम से ही बद्ध न होकर परा प्रकृति के ‘ उत्तम रहस्य’ तक में प्रविष्ट हैं उसी उत्तम रहस्य के आधार पर गीता वेदांत , सांख्य और योग का समन्वय, ज्ञान , कर्म और भक्ति का समन्वय स्थापित करती है । केवल सांख्य - शास्त्र के द्वारा कर्म और भक्ति का समन्वय परस्पर - विरोधी होने से असंभावित है । केवल अद्वैत सिद्धांत के आधार पर योग के अंगरूप से कर्मो का सदा आचरण और पूर्ण ज्ञान, मुक्ति और सायुज्य के बाद भी भक्ति में रमण असंभव है या कम - से - कम युक्ति- विरूद्ध और निष्प्रयोजन है । गीता का सांख्य - ज्ञान इन सब बाधाओं को दूर करता है और गीता का योगशास्त्र इस सब पर विजय लाभ करता है ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:गीता प्रबंध