गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 82

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गीता-प्रबंध
9. सांख्य, योग और वेंदांत

इसके उत्तर में भगवान् यह बतलाते हैं कि सांख्य ज्ञान और संन्यास का मार्ग है और योग कर्म का ; परंतु योग के बिना अर्थात् जब तक समत्व - बुद्धि से , फलेच्छा रहित होकर, इस बात को जानते हुए कि कर्म प्रकृति के द्वारा होता है आत्मा के द्वारा नहीं, जब तक कर्म यज्ञार्थ नहीं किया जाता तब तक सच्चे संन्यास का होना असंभव है; पर यह कहकर फिर तुरंत ही भगवान् यह भी कहते हैं कि ज्ञान यज्ञ ही सबसे श्रेष्ठ यज्ञ है, सब कर्म ज्ञान में ही परिसमाप्त होते है, ज्ञान की अग्नि से सब कर्म दग्ध हो जाते है; इसलिये जो पुरूष अपनी आत्मा को पा लेता है उसके कर्म योग के द्वारा संन्यस्त होते हैं और उसे कर्म का बंधन नहीं होता । अर्जुन की बुद्धि फिर चकरा जाती है ; क्योंकि निष्काम कर्म तो हुआ योग का सिद्धांत , और कर्म - संन्यास हुआ सांख्य का सिद्धांत , और दोनों ही सिद्धांत ,उसे एक साथ बताये जा रहे है मानों दोनों एक ही प्रक्रिया के दो भाग हों; पर इन दोनों में कोई मेल तो दीखता ही नहीं कारण जिस तरह का मेल पहले भगवन् गुरू बता चुके - अर्थात् बाह्म अकर्म में कर्म को होते हुए देखना और बाह्म कर्म में यथार्थ अकर्म को देखना, क्योंकि पुरूष अपने कर्ता होने का भ्रम त्याग चुका है और अपने कर्म यज्ञ के स्वामी के हाथों मे सौंप चुका है- वह मेल अर्जुन की व्यावहिकर बुद्धि के लिये इतना बारीक, इतना सूक्ष्म है और यह ऐसी पहेलीदार भाषा में प्रकट किया गया है कि अर्जुन इसके आशय को नहीं ग्रहण कर सका या कम – से- कम इसके मर्म और इसकी वास्तविकता तक नहीं पहुंच सका।
इसलिये वह पूछता है कि , “हे कृष्ण , आप मुझे कर्म का सन्यास बता रहे हैं और फिर कहते है कि योग कर , तो इसमें कौन- सा मार्ग उत्तम है यह मुझे स्पष्ट रूप से निश्चित करके बताइये।“[१] भगवान् इसका जो उत्तर देते हैं वह महत्वपूर्ण है, क्योंकि उससे योग और सांख्य का भेद एकदम स्पष्ट हो जाता है ओर इनके समन्वय का एक संकेत मिल जाता है , उसमें समन्वयसबंधी पूर्ण विचारधारा अभी नहीं बतायी गयी है । वह उत्तर है, “संन्यास और कर्मयोग दोनों ही तीव्र को मुक्त करने वाले हैं, पर इन दोनों में कर्मयोग संन्यास की अपेक्षा श्रेष्ठ है । उसी को नित्य संन्यासी जानना चाहिये जो (कर्म करते हुए भी) न द्वेष करता है न आकांक्षा ही ; क्योंकि निद्र्वन्द्व होने से वह अनायास और सुखपूर्वक बंधन से मुक्त होता है। सांख्य और योग को अल्पबुद्धि के लोग ही एक- दूसरे से पृथक बतलाया करते हैं, ज्ञानी नहीं; यदि कोई मुनष्य संपूर्ण रूप से किसी एक में ही लगे तो वह दोनों का फल पा जाता है,”[२] क्योंकि अपनी संपूर्णता में ये दोनों ही एक- दूसरे को धारण किये हुए है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 5.1
  2. 5.2-4

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