गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 85

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गीता-प्रबंध
9. सांख्य, योग और वेंदांत

सांख्य ने वेदांत के ज्ञानमाग्र की ही तरह बुद्धि से आरंभ किया और विचार द्वारा उसने पुरूष के सच्चे स्वभाव का विवेक किया और यह बताया कि आसक्ति और तादात्म्य के द्वारा प्रकृति अपने कर्मो को पुरूष पर आरोपित करती है , ठीक उसी तरह वैदांतिक पद्धति इसी साधन द्वारा आत्मा के सच्चे स्वभाव के वेद तक पहुंची है और उसने बताया है कि आत्मा पर जगत् का आभास मन के भ्रम के कारण पड़ता है और इसी से अहं भावयुत तादात्म्य और आसक्ति पैदा होती है। वेदांतिक पद्धति के अनुसार आत्मा जब अपने नित्य सनातन ब्रह्म- निष्क्रिय पुरूष - अवस्था में लौट आती है तो उसके लिये माया की सत्ता नहीं रहती और विश्व -’ क्रिया तिरोहित हो जाती है; सांख - प्रणाली के अनुसार जीव जब अपनी सत्य सनातान निष्क्रिय पुरूष - अवस्था में लौट आता है तब गुणों का कर्म बंद हो जाता है और विश्व - क्रिया समाप्त हो जाती है। मायावादियों का ब्रह्म शांत , अक्षर और अकर्ता है, सांख्यों का पुरूष भी ऐसा ही है; इसलिये दोनों के लिये जीवन और कर्मो का संन्यास मोक्ष का आवश्यक साधन है।
परंतु गीता के योग में वैदांतिक कर्मयाग के समान ही , कर्म केवल आधार को तैयार करने का साधन नहीं है ,बल्कि यह मोक्ष का स्वतः सिद्ध साधन माना गया है; और इसी सिद्धांत की सत्यता को गीता बराबर बड़े जोरदार आग्रह के साथ हृदय में जमा देना चाहती है; दुर्भाग्यवश यह आग्रह बौद्धमत१ की प्रचंड लहर के सामने न ठहर सका , और पीछे संन्यास- संप्रदाय के माया वाद की तीव्रता में तथा संसारत्यागी संतों और भक्तों की उमंग में, इसका लोप हो गया और अब हाल में ही भारतवासियों की बुद्धि पर इसका वास्तविक और हितकर प्रभाव फिर से पड़ने लगा है। संन्यास तो अपरिहार्य रूप से आश्यक है ,पर सच्चा संन्यास कामना और अहंकार का आंतरिक त्याग है ; इस आंतरिक त्याग के बिना कार्मो का बाह्म भौतिक त्याग मिथ्या और व्यर्थ है। आंतरिक त्याग हो तो बाह्म त्याग की आवश्यकता भी जाती रहती है, यद्यपि उसकी कोई मना ही भी नहीं है । ज्ञान मुख्य है , मुक्ति के लिये इससे बड़ी और कोई शक्ति नहीं है; पर ज्ञान- सहित कर्म की भी आवश्यकता है; ज्ञान और कर्म के एकत्व से जीव पूर्णतया ब्राह्मी स्थिति में रहता है, केवल विश्राम में और निष्क्रिय शांति की अवस्था में ही नहीं ,बल्कि कर्म के भीषण घात- प्रतिघात में भी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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