गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 88
गीता को उसमे अपना वह जगमगाता हुआ विचार भी जोडना है जो उसके समन्वय- साधन की पराकाष्ठा है अर्थात् पुरूषोत्तम का सिद्धांत और पुरूष के त्रिविध होने का सिद्धांत जो उपनिषदों में बीज- रूप से तो है पर उसका कोई स्पष्ट , सुनिश्चित , निर्विवाद प्रमाण उपनिषदों के मंत्रों में अनायास नहीं मिल सकता , बल्कि यह सिद्धांत पहली नजर मे तो श्रुति के उस मंत्र के विरूद्ध प्रतीत होता है जिसमें पुरूष दो माने गये हैं । इसके अतिरिक्त, कर्म और ज्ञान का समन्वय साधते समय गीता को केवल योग और सांख्य के विरोध की ही संगति नहीं बिठानी है, बल्कि स्वयं वेदांत के अंदर भी कर्म और ज्ञान में जो विरोध है - जो सांख्य और योग के विरोध जैसा ही नहीं है, क्योंकि वेदांत में इन दो शब्दों के फलितार्थ से अलग है और इसलिये इनका विरोध भी सांख्य के विरोध से भिन्न है- उसका भी ध्यान रखना है । इसलिये चलते - चलते यहां पर ऐसा कहा जा सकता है कि, वेद और उपनिषदों के मंत्र ही जिनके आधार हैं ऐसे इन नानाविध दार्शनिक संप्रदायों में जब इतना विरोध है तब गीता का यह कहना कि श्रुति बुद्धि को घबरा और चकरा देती है, उसे कई दिशाओं में घुमा देती है, श्रुतिविप्रतिपन्ना , कोई आश्चर्य की बात नहीं । आज भी भारत के पंडितों और दार्शनिकों के बीच इन प्राचीन वचनों के अर्थो के संबंध में कितने बडे़ - बडे़ शास्त्रार्थ और झगड़े हो जाते हैं और कितने विभिन्न सिद्धांत स्थापित किये जाते हैं ।
इनसे बुद्धि विरक्त और उदासीन होकर ,गन्तासि निर्वेद, नवीन और प्राचीन शास्त्र - वचनों को, सुनने से इनकार करके स्वयं ही गूढतर , आंतर और प्रत्यक्ष अनुभव के सहारे सत्य का अन्वेषण करने के लिये अपने अंदर प्रवेश कर सकती है। गीता के प्रथम छः अध्यायों में कर्म और ज्ञान के समन्वय की, सांख्य , योग और वेदांत के समन्वय की एक विशाल नींव डाली गयी है । पर आरंभ में ही गीता देखती है कि वेदांतियों की भाषा में कर्म शब्द का एक खास अर्थ है; वहां कर्म का अभिप्राय है वैदिक यज्ञों और अनुष्ठानों से ,अथवा अधिक से अधिक इन श्रोत कर्मो के साथ - साथ उन गुह्मसूत्रों के अनुसार जीवनचर्या से जिनमें ये आचार - अनुष्ठान ही जीवन के महत्वपूर्ण अंग और धर्म के प्राण माने गये हैं । इन्हीं धार्मिक कर्मो को, इन्हीं योग यज्ञों को जो बड़ी ‘ विधि ‘ से किये जाते है और जिनकी क्रियाएं एकदम बंधी हुई और जटिल है वेदांती कर्म कहते हैं । पर योग में कर्म का बहुत व्यापक अर्थ हैं ।इसी व्यापक अर्थ पर गीता का आग्रह है; जब हम आध्यात्मिक कर्म की बत कहते हैं तब हमारे ध्यान में यह बात आ जानी चाहिये कि इस शब्द के अंदर सभी कर्मो , सर्वकर्माणि, का समावेश है । साथ ही गीता यज्ञ की भावना का, बौद्धमत की तरह ,निषेध भी नहीं करती ,गीता उसे समुन्नत और व्यापक बनाती है । वतुतः गीता का कहना यह है कि यज्ञ केवल जीवन का सबसे महत्वपूर्ण अंग ही नहीं है, बल्कि सम्पूर्ण जीवन और समस्त कर्म यज्ञ ही होने चाहिऐं,अवश्य ही अज्ञानी लोग उच्चतर ज्ञान के बिना ही और महामूढ तो “अविधिपूर्वक” भी, यज्ञ करते हैं ।
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