गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 95
इस क्रम में पहले बुद्धि अर्थात् विवेक और निश्चय करने वाली शक्ति का और अहंकार अर्थात् इतरों से अपना पार्थक्य करने वाली बुद्धि की अनुगत शक्ति का विकास होता है। तब इस क्रमव्यस्था के द्वितीय विकास में बुद्धि और अहंकार में से मन उत्पन्न होता है जो विषयों की पृथक- पृथक पहचान करता है । यहां हमें भारतीय नामों का प्रयोग करना चाहिये, क्योंकि उनके समानवाची अंग्रेजी शब्द सचमुच उनके पर्याय नहीं है; इस क्रमव्यवस्था के तीसरे विकास में मन से पांच ज्ञानेन्द्रियां और पांच कमेन्द्रियां उत्पन्न होती हैं; तदनंतर ज्ञानेन्द्रियों की शक्तियां अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध उत्पन्न होते हैं , जो हमारे मन के लिये स्थूल विषयों का मूल्य निर्धरित करते हैं और हमारी आत्मनिष्ठता में पदाथों की जो प्रतीति होती है वह उन्ही के द्वारा होती है। इन्ही पांच विषयों के उपादान- स्वरूप पंचहमाभूत उत्पन्न होते हैं, जिनके विभिन्न सम्मिश्रणों से बाह्म जगत् के पदार्थ उत्पन्न होते हैं। प्रकृति के गुणों की ये अवस्थांए और शक्तियां पुरूष के विशुद्ध चैतन्य में प्रतिभासित होकर हमारे अशुद्ध अंतः करण के उत्पादन बनाती है। अशुद्ध इसलिये कि इसका कार्य बाह्म जगत् के अनुभवों और अंतः करण पर होने वाली उनकी प्रतिक्रियाओं पर निर्भर है। इसी बुद्धि के- जो मात्र विधायक शक्ति है और जो अपनी अनिश्चत अचेतन शक्ति में से सब जड़वत्त किया करती है - हमारे अंदर दो रूप हो जाते है, एक मेधा और दूसरा संकल्प ।
मन , जो एक अचेतन शक्ति है, प्रकृति के भेदों को बहिरंग क्रिया और प्रतिक्रिया के द्वारा ग्रहण करता और आकर्षण के द्वारा उनसे संलग्न होता है, इन्द्रियानुभव और कामना बनता है जो बुद्धि और संकल्प के ही दो असंस्कृत अवयव या विकार हैं, - यही मन संवेदन - शक्ति , भावावेग - शक्ति और इच्छा - शक्ति बनता है , इच्छा शक्ति से यहां अभिपेत है निम्न कोटि की इच्छा, आशा, कामनामय आवेग, प्राण का आवेग, और ये सबके संकल्प- शक्ति के ही विकार हैं। इन्द्रियां इस मन का उपकरण बनती है,जिनमें पांच ज्ञानेन्दिे्रया और पांच कामेन्द्रियां , जो अंतरंग जगत् और बहिरंग जगत् के बीच मध्यस्थति का काम करती हैं; बाकी सब हमारी चेतना के विषय, इन्द्रियों के विषय है। स्थूल जगत् के विकास का जो क्रम हम लेाग देखते हैं उससे यह क्रम विपरीत प्रतीत होता है । परंतु यदि हम यह स्मरण रखें कि स्वयं बुद्धि भी अपने- आपमें जड़ प्रकृति की एक जड़ क्रिया है और परमाणु में भी कोई जड़ संकल्प और बोध , पार्थक्य और निश्चय करने वाली गुणक्रिया होती है, यदि हम यह देखें कि पौधों में भी, जीवन के इन अवचेतन रूपों में भी, संवेदन , भावावेग, स्मृति और आवेगों के असंस्कृत अचेतन उपादान मौजूद हैं और फिर यह देखें कि प्रकृति की ये शक्तियां ही किस प्रकार आगे चलकर पशु और मनुष्य की विकासोन्मुख चेतना में अंतःकरण के रूप धारण करती हैं, तो हमें यह पता लगेगा कि आधुनिक विज्ञान ने जड़ प्रकृति के निरीक्षण द्वारा जो कुछ तथ्य प्राप्त किया है, उसके साथ सांख्य प्रणाली का मेल मिल जाता है।
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