गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 102
बुद्धियोग और ब्राह्मी स्थिति में उसकी परिसमाप्ति ,जो गीता के द्वितीय अध्याय के अंतिम भाग का विषय है, उसमें गीता की बहुत कुछ शिक्षा बीज- रूप से आ गयी है- गीता का निष्काम कर्म ,समत्व, बाह्म संन्यास का वर्जन और भगवद्भक्ति, ये सभी सिद्धांत इसमें आ गये हैं । परंतु अभी ये सब बहुत ही अल्प और अस्पष्ट रूप में हैं। जिस बात पर अभीतक सबसे अधिक जोर दिया गया है वह यही है कि मनुष्य के कर्म करने का जो सामन्य प्रेरक - भाव हुआ करता है उससे, अर्थात् उसकी अपनी कामना से तथा आवेशों और अज्ञान के साथ इन्द्रियसुख के पीछे दौड़ने वाले विचार और संकल्पमय उसके सामान्य प्राकृत स्वभाव से और अनेक शाखा - पल्लवों से युक्त संतप्त विचारों और इच्छाओं में भटकते रहने का उसका जो अभ्यास है उससे, मनुष्य की बुद्धि हट जाये और वह ब्राह्मी स्थिति की निष्काम स्थिर एकता और निर्विकार प्रशांति में पहुंच जाये। इतना अर्जुन ने समझ लिया है। इसमें उसके लिये कोई नयी बात नहीं; क्योंकि उस समय की प्रचलित शिक्षा का यही सार था जो मनुष्य को सिद्धि प्राप्त करने के लिये ज्ञान का मार्ग तथा जीवन और कर्म से संन्यास का मार्ग दिखा देता था।
बुद्धि का इन्द्रियों से, विषय - वासनाओं से तथा मानव - कर्म से हटकर उस परम में, उस एकमेवाद्वितीय अकर्ता पुरूष में, उस अचल निराकार ब्रह्म में लगना ही ज्ञान का सनातन बीज है। यहां कर्म के लिये कोई स्थान नहीं, क्योंकि कर्म अज्ञान के हैं; कर्म ज्ञान से सर्वथा विपरीत है; कर्म का बीज है कामना और उसका फल है बंधन- यही कट्टर दार्शनिक मत है और श्रीकृष्ण भी इसे स्वीकार करते हुए मालूम होत हैं, जब वे कहते हैं कि कर्म बुद्धियोग के सामने बहुत ही नीचा है और फिर भी जोर देकर यह कहा जता है कि योग के अंग के रूप में कर्म करना होगा; इस तरह इस शिक्षा मे एक मूलगत परस्पर - विरोध दीख पड़ता है। इतना ही नहीं ; क्योंकि ज्ञान की अवस्था में भी कुछ काल तक किसी प्रकार का कोई कर्म बना रह सकता , ऐसा कर्म जो कम- से - कम हो, अत्यंत निर्दोष हो ; पर यहां जो कर्म बताया जा रहा है वह तो ज्ञान के ,सौम्यता के और स्वांत सुखी जीव की अचल शांति के सर्वथा विरूद्ध है- यह कर्म तो एक भयानक , यहां तक कि राक्षसी कर्म है , खून- खराबे से भरा हुआ संघर्ष है एक निर्दय संग्राम है, एक दानवी हत्याकांड है। फिर भी इसी कर्म का यहां विधान किया जा रहा है और अंत:स्थ शान्ति और निष्काम समता तथा ब्राह्मी स्थिति की शिक्षा से इसका समर्थन किया जा रहा है! यह ऐसा परस्पर - विरोध है जिसका अभी मेल नहीं मिला है।
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