गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 224
पुरूषोत्तम सब भूतों में निगूढ़ अंतर्यामी ईश्वर - रूप से रहते हुए प्रकृति का नियंत्रण करते हैं और उन्हींकी इच्छा से, जो अब अहंभाव से विकृत या विरूप नहीं हैं, प्रकृति स्वभाव - नियत होकर कर्मसंपादन करती है; और व्यष्टि - पुरूष दिव्यीकृत प्राकृत सत्ता को भगवत्संकल्प - साधन का एक यंत्रामात्र, निमित्तमात्रं बना देता है। वह कर्म करता हुआ भी त्रिगुणातीत, निस्त्रैगुण्य ही बना रहता है और गीता ने आरंभ में जो आदेश किया, (हे अर्जुन ! तू निस्त्रैगुण्य हो जा), उसे अंत में पूर्णतया कार्य में सफल करता है। वह अब भी गुणों का भोक्ता तो है पर ब्रह्म की तरह ही अर्थात् भोक्ता होने पर भी उनसे बद्ध नहीं , और ब्रह्म की तरह ही अनासक्त होते हुए भी सबका भर्ता है, उसमें गुणों की क्रिया का रूप बिलकुल बदल जाता है।
यह क्रिया गुणों के अहमात्मक रूप और प्रितिक्रियाओं से ऊपर उठी रहती है। क्योंकि उसने अपनी संपूर्ण सत्ता को पुरूषोत्तम में एकीभूत कर लिया है, वह भागवत सत्ता और भूतभाव की उच्चतम दिव्य प्रकृति ‘मद्भावम्’ को प्राप्त हो गया है, और अपने मन और चित्त को भी भगवान् के साथ एक कर लिया है, यह रूपांतर हो प्रकृति का परम विकास और दिव्य जन्म की परम सिद्धि है, यही उत्तमं रहस्य है। यह संसिद्धि जब प्राप्त हो जाती है तब पुरूष अपने - आपको प्रकृति का स्वामी जानता है और, भागवत ज्योति की एक ज्योति तथा भगवदिच्छा की ही एक इच्छा बनकर , वह अपनी प्रकृति की क्रियाओं को दिव्य कर्म में रूपान्तर करने में समर्थ होता है।
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