गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 225
ज्ञानमार्ग का अनुसरण करने वाले संकीर्ण सिद्धांत की तरह केवल अक्षर पुरूष के साथ एक हो जाना ही नहीं, अपितु समग्र सत्ता के योग द्वारा जीव का पुरूषोत्तम के साथ एक हो जाना गीता की संपूर्ण शिक्षा है। यही कारण है कि ज्ञान औार कर्म का समन्वय साधने के पश्चात गीता ने कर्म और ज्ञान से युक्त प्रेम और भक्ति की भावना का विकास करके बतलाया है कि जिस मार्ग के द्वारा उत्तम रहस्य तक पहुंचा जा सकता है उसकी सर्वोच्च भूमि यही है। यदि अक्षर पुरूष के साथ एक हो जाना ही एकमात्र रहस्य या परम रहस्य होता तो कर्म और ज्ञान से युक्त प्रेम और भक्ति का साधना संभव न होता, क्योंकि जब साधना में एक ऐसी अवस्था आ जाती जब प्रेम और भक्ति के लिये हमारा आंतरिक आधार कर्म के आंतरिक आधार के समान चूर - चूर होकर ढह जाता। केवल अक्षर पुरूष के साथ संपूर्ण और अन्य एकता का अर्थ होता है क्षर पुरूष के दृष्टिबिंदु को सर्वथा नष्ट कर देना। यह, सामान्य और हीनतर कर्म में क्षर पुरूष की सत्ता के दृष्टिबिंदु को नष्ट करना ही नहीं है , बल्कि स्वयं उसके मूल से, जो कुछ उसकी सत्ता को संभव बनाता है उस सबसे भी, इंकार करना है; यह केवल उसकी अज्ञानावस्था के कर्म से ही नहीं, प्रत्युत उसकी ज्ञानावस्था के कर्म से भी इंकार है।
इसका अर्थ है मानवजीवन की ओर भगवान् की चेतना तथा कर्मण्यता में जो भेद है, जिसके कारण क्षर भाव की लीला संभव होती है , उसे नष्ट कर देना; क्योंकि तब क्षर पुरूष का कर्म केवल अज्ञान का खेल रहा जायेगा और उसके मूल में या उसके आधारस्वरूप कोई भागवत सद्वस्तु नहीं रहेगी। इसके विपरीत, योग के द्वारा पुरूषोत्तम के साथ एक होने का अर्थ होता है अपनी स्वतःस्थित सत्ता में उनके साथ एकत्व का ज्ञान और आस्वादन तथा अपनी क्रियाशील सत्ता में इनके साथ एक विशेष प्रकार के भेदभाव का ज्ञान और आस्वादन । दिव्य प्रेम की प्रेरक - शक्ति द्वारा परिचालित और संसिद्ध दिव्य प्रकृति द्वारा अनुष्ठित दिव्य कार्मो की लीला में सक्रिय सत्ता और पुरूषोत्तम के बीच उपर्युक्त विशेष प्रकार के भेदभाव का बना रहना तथा आत्मा के अंदर भगवान् की उपलब्धि के साथ - साथ जगत् में भगवान् का दर्शन , इन दो कारणों से ही मुक्त पुरूष के लिये कर्म और भक्ति करना संभव होता है, केवल संभव ही नहीं, बल्कि उसके सिद्ध स्वभाव के लिये अपरिहार्य होता है। परन्तु पुरूषोत्तम के साथ एकता स्थापित करने का सीधा रास्ता अक्षर ब्रह्म की सदृढ़ अनुभूति में से होकर ही है, और इस बात पर गीता ने बहुत जोर दिया है और कहा है कि यह जीव की पहली आवश्यकता है, - और इसे प्राप्त कर लेने के बाद ही कर्म और भक्ति अपने परम दिव्यायर्थ को प्राप्त होगें - इसी कारण हम गीता के आशय को निर्वाण और संसार में कर्म समझने में भूल कर जाते हैं।
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