गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 230
यहां गीता के परम प्रतिपाद्य विषय, पुरूषोत्तम की भावना की ओर वापिस आते है। यूं तो यह नाम गीता के उपसंहार के कुछ ही पहले आता है, तथापि गीता में आदि से अंत तक जहां - जहां श्रीकृष्ण ‘‘अहं” , ‘‘माम्” इत्यादि पदों का प्रयोग करते हैं वहां - वहां उनका अभिप्राय उन्हीं भगवान् से है जो हमारी कालातीत अक्षर सत्ता में हमारे एकमेवाद्वितीय आत्मस्वरूप में हैं, जो जगत् में भी अवस्थित हैं, सब भूतों में, सब कर्मो में विद्यमान हैं, जो निश्चल - नीरवता और शांति के अधीश्वर हैं, जो शक्ति और कर्म के स्वामी हैं जो इस महायुद्ध में पार्थसारथीरूप से अवतीर्ण है, जो परात्पर पुरूष हैं। परमात्मा हैं, सर्वमिदं हैं, प्रत्येक जीव के ईश्वर है, वे सब यज्ञों और तपों के भोक्ता हैं, इसलिये मुक्ति - कामी पुरूष सब कर्मो को यज्ञ और तपरूप से करें; वे सर्वलोकमहेश्वर हैं, और इस प्रकृति तथा सब प्राणियों में प्रकट हैं, इसलिये मुक्त पुरूष होने पर भी, लोकसंग्रहार्थ कर्म करें, अर्थात् जगत् में लोगों का समुचित नियंत्रण करे और उन्हें सन्मार्ग दिखावे; ‘वे सबके सुहृद हैं’ इसलिये वही मुनि हैं जिसने अपने अंदर और अपने चारों ओर, निर्वाण लाभ किया है , फिर भी वह सदा सब भूतों के कल्याण में रत रहता है - जैसे बौद्धों के महायान पंथ में भी निर्वाण का परम लक्षण जगत् के सब प्राणियों के प्रति करूणामय कर्म ही समझा जाता है ।
इसलिये अपने कालातीत अक्षर आत्मरूपरूप में भगवान् के साथ एक होने पर भी वह मनुष्य दिव्य प्रेम कर सकता है, क्योंकि उसके अंदर प्रकृति की क्रीड़ा के संबंध भी समाविष्ट है, और साथ ही वह भगवान् की भक्ति भी कर सकता है।छठे अध्याय के आशय की तह में पहुंचने पर यह बात और भी अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि गीता के इन श्लोकों का यही तात्पर्य है । छठे अध्याय में पांचवें अध्याय के इन्हीं अंतिम श्लोकों के भाव का विशदीकरण और पूर्ण विकास किया गया है - और इससे यह पता चलता है कि गीता इन श्लोंको को कितना महत्व देती है। इसलिये अब हम इसी छठे अध्याय के सार - मर्म का अति संक्षिप्त रूप से पर्यवेक्षण करेंगें। सबसे पहले भगवान् गुरू अपनी बार - बार दोहरायी गयी संन्यास के मूल तत्व की घोषणा पर जोर देते और उस बात को फिर से कहते है कि असली संन्यास आंतरिक है, बाह्म नहीं, ‘‘ जो कोई कर्मफल का आश्रय किये बिना कर्तव्य कर्म करता है वही संन्यासी है, वही योगी है, वह नहीं जो यज्ञ की अग्नि जलाता न हो और अक्रिय हो। जिसे लोग संन्यास कहते हैं उसे तू योग समझ; क्योंकि जिसने अपने मन के वासनामूलक संकल्पो का त्याग नहीं किया वह योगी नहीं हो सकता।”[१] कर्म करने होगें , पर किस उद्देश्य से , किस क्रम से ?
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 6.1