गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 73

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गीता-प्रबंध
8.सांख्य और योग

अवश्य ही हमारे इस जगत् में बहुत - सी चीजें हैं जिन्हें सांख्य शास्त्र निरूपित नहीं करता है और कराता भी है तो पूर्ण समाधान कारक रीति से नहीं, परंतु यदि हम जो कुछ चाहते है वह इतना ही है कि हम केवल यौक्तिक व्याख्या द्वारा यह समझ लें कि इस विश्व की प्रक्रियाएं तत्वतः क्या हैं जिसमे हम उस लक्ष्य की और अग्रसर हो सकें जो सभी प्राचीन दर्शनों का लक्ष है , अर्थात विश्व - प्रकृति के जंजाल से आत्मा की मुक्ति ,तब तो सांख्य का जगत् - निरूपण और मुक्ति का मार्ग उतना ही उत्तम और प्रभावकारी है जितना कि कोई अन्य मार्ग। यहां जो बात पहले समझ में नहीं आती वह यह है कि सांख्य प्रकृति को एक ,और पुरूष को अनेक मानकर अपने द्वैत सिद्धांत में बहुत्व की स्थापना किसलिये करता है । ऐसा मालूम होता है कि एक ही प्रकृति और एक ही पुरूष को मानने से भी विश्व की सृष्टि और उसके प्रसारण की व्याख्या की जा सकती थी। परंतु पदार्थो के मूल तत्वों के निरीक्षण की कठोर विश्लेषण- पद्धति के फलस्वरूप पुरूष - बहुत्व के सिद्धांत का प्रतिपादन करना सांख्य के लिये अनिवार्य था । पहली बात यह है कि हम इस संसार में अनेक सचेतन प्राणियों को देखते हैं और इनमें से प्रत्येक इस जगत् को अपने ही ढंग से देखता है और इसकी आंतरिक और बाह्म वस्तुओं को अपने ही ढंग से देख अनुभव करता है ।
यद्वपि अनुभव करने वाली तथा प्रतिक्रिया करने वाली क्रियाएं एक ही हैं फिर भी प्रत्येक प्राणी इसके साथ पृथक - पृथक रूप से व्यवहार करता है। पुरूष यदि एक ही होता तो यह केन्द्रीय स्वातंत्रय और पार्थक्य न होता , सभी प्राणी जगत् को एक - सा अनुभव करते और देखते , एक ही रूप में पदार्थे को ग्रहण करते और सबका व्यवहार उनके साथ एक - सा ही होता । चूंक प्रकृति एक है, इसलिये सब प्राणी उसी एक जगत् को देखते हैं; और चूंकि उसके तत्व हर जगह एक ही है इसलिये जिन सर्वसाधारण तत्वों के कारण आंतरिक और बाह्म अनुभूतियां होती हैं वे भी सबके लिये एक - सी हैं; परतु इन प्राणियों की दृष्टि , विचार और रूख में तथा इनके कर्म , अनुभव और अनुभव से भागने की वृत्ति में जो असंख्य भेद हैं - अवश्य ही ये भेद प्रकृति की स्वाभाविक क्रिया के नहीं , बल्कि साक्षी चेतना के हैं- इस विषय की इसके सिवाय और कोई व्याख्या नहीं हो सकती कि बहुत - से साक्षी हैं, अनेक पुरूष है । हम कह सकतें हैं कि पृथक्त्व धर्मवाला अहंकार ही कारण है, यही इस विषय का पर्याप्त उत्तर है । पर अहंकार तो प्रकृति का एक तत्व है जो सबके लिये समान है, उसमें भेद होना जरूरी नहीं हैं । वह स्वयं तो केवल इतना ही करता है कि पुरूष को प्रकृति के साथ तादात्म्य कर लेने में प्रवृत्ति करे, और यदि एक ही पुरूष होता तो सब जीव एक होते, अपनी अहंभावमयी चेतना में जुटे हुए और एक - से होते ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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