गोला बारूद
गोला बारूद
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4 |
पृष्ठ संख्या | 33 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | फूलदेव सहाय वर्मा |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | दामोदर दास खन्ना |
गोला बारूद शब्द का प्रयोग प्रक्षिप्तों, उनके द्वारा संचालित स्फोटकों, छोटे मोटे हथियारों, तोपखानों, खाई मार्टरों, बमों और ग्रिनेडों तथा इनके निर्माण में काम आनेवाली वस्तुओं के अर्थ में होता है। इन अस्त्रों को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।
प्रथम वर्ग में लघु अस्त्र आते हैं। इन अस्त्रों में प्रक्षिप्त अस्त्रों का व्यास एक इंच से कम होता है। इन एक राउंडवाले अस्त्रों में साधारणत: पीतल के खोल में चूर्ण, प्रक्षिप्त और स्फोटक को एक धनीभूत इकाई के रूप में स्थापित किया जाता है। खोल के एक सिरे पर प्रक्षिप्त और दूसरे पर विस्फोटक संलग्न रहता है।
द्वितीय वर्ग में एक इंच से अधिक व्यासवले प्रक्षिप्त और उनसे संबंधित अस्त्र रहते हैं। इसको तोपखाना कहते हैं। ये अस्त्र भी प्रथम वर्ग के अस्त्रों की भांति ही बनाए जाते हैं। इन अस्त्रों को दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। पहली श्रेणी में अर्धस्थिर प्रकारके अस्त्र आते हैं। स्थिर श्रेणी के अस्त्रों में विपरीत, अर्धस्थिर श्रेणी के अस्त्रों की एक इकाई में प्रक्षिप्त ऐसी स्थिति में रहता है कि वह चलाए जाने पर अपने को अपने खोल और अंतर्निति पदार्थो से मुक्त कर लेता है। इससे अस्त्र के संचालन को व्यवस्थित किया जा सकता है।
तीसरे वर्ग में अलग से भरे जानेवाले प्रकार के अस्त्र आते हैं। साधारणत: काम में आनेवाले मध्यम और बड़े व्यास के इन अस्त्रों में चूर्ण, स्फोटक और प्रक्षिप्त अलग अलग रखे जाते हैं। बार करते समय पहले तोप में नग्न प्रक्षिप्त डाला जाता है। इसके बाद चूर्ण के एक या अधिक थैले डाल दिए जाते हैं। इसके पश्चात् बंदूक के नीचे के भाग में विस्फोटक को उसके स्थान पर भर दिया जाता है। कभी कभी चूर्ण के थैलों को भी पहले से ही एक खाल में भर लिया जाता है। ऐसी स्थिति में ये प्रक्षिप्त अर्धस्थिर प्रकार के अस्त्रों के समान व्यवहार करने लगते हैं। चूर्ण, प्रक्षिप्त और विस्फोटक की इकाइयों से निर्मित ऐसे एक पूरे सेट को एक पूर्ण चक्र कहते हैं, चाहे यह सेट स्थिर, अर्धस्थिर या अलग से भरे जानेवाले वर्ग का हो।
तोपखाना- बारूदवाले प्रक्षेपकों का आरंभ 14वीं शताब्दी के प्रारंभ में हुआ। जर्मनी राज्य के फ्रीबर्ग नामक स्थान के एक साधु ने, जिसका नाम वर्थोल्ड श्वार्टज़ था, इसका आविष्कार किया। सबसे पहले जो शस्त्र बने वे उस समय प्रयुक्त हानेवाले तीर कमानों के समान ही थे। ये तीरो के समान थे, जिनके सिरों पर चमड़ा लपेट दिया जाता था, जिससे बारूद से उत्पन्न गैसों को निकल जाने से रोका जा सके। ये अस्त्र न तो बड़े थे और न भारी। यद्यपि इस पकार के शस्त्रों का प्रयोग शताब्दियों तक होता रहा, फिर भी लक्ष्यवेध की दृष्टि से ये अस्त्र अनुपयुक्त थे। अभी तक पत्थर के गोलाकार टुकड़ों का सफलतार्पूक प्रयोग होता रहा। 14वीं शताब्दी के मध्य में पत्थर के गोलों के स्थान पर लोहे, जस्ते या सीसे से बने गोलों का प्रयोग प्रारंभ हुआ। किंतु लोहे की गोलियों का व्यापक प्रयोग 15वीं शताब्दी के अंत में फ्रांस के आठवें चार्ल्स (Charles) के राज्यकाल (सन् 1493-98) में ही प्रारंभ हुआ। सन् 1491 ई. में वेनिस के सिपाहियों ने तारों के युद्ध में फ्रांसीसियों के विरुद्ध इन अस्त्रों का प्रयोग किया। भारी अस्त्रों का प्रयोग इसके बाद ही संभव हो सका।
यह बात बड़ी विचित्र लगती है कि तोपों में पत्थर के गोलों का प्रयोग सफलतापूर्वक काफी समय तक चला। पत्थर के गोले अपने ही आकार के धातु के गोलों की अपेक्षा अधिक सस्ते और भार में कम होते हैं। इसके अतिरिक्त पत्थर के एक गोले को फेंकने के लिये उसी आकार के दूसरे धातु के गोले की अपेक्षा कम बारूद की आवश्यकता पड़ती है। साथ ही प्रयुक्त तोप भी अधिक चलती हैं, अपने इन गुणों के कारण ये पत्थर के गोले उस समय की अविकसित तोपों के लिये अधिक उपयोगी सिद्ध हुए और इसीलिये इनका उपयोग एक लंबे समय तक होता रहा।
15वीं शताब्दी के अंत तक बारूद बनाने के लिये आवश्यक पदार्थ अलग अलग रखे जाते थे। तोपची इन पदार्थों को ठीक अनुपात में मिलाकर विस्फोटक बनाते थे। यह कार्य खतरनाक था। बारूद के विस्फोट के लिये समीपवर्ती किसी भी स्थान पर थोड़ी सी खुली अग्नि भर पर्याप्त थी। धीरे धीरे तोपखाने का प्रयोग व्यापक रूप से होने लगा। अब ऐसे अस्त्रों के विकास की आवश्यकता का अनुभव होने लगा जिससे एक साथ ही अनेकों छोटे छोटे प्रक्षिप्त शत्रुदल पर फेंके जा सकें। इसी काल में कैनिस्टर (canister) और केस (case) गोलों का भी विकास हुआ।
तोपखाने में दूसरा महत्वपूर्ण विकास कार्तूसों का निर्माण था। कार्तूस ढले हुए लोहे का एक साधारण रिक्त गोला रहता है, जिसमें विस्फोटक से संलग्न एक प्रकार का फ्यूज रहता है जिससे आंतरिक पदार्थ को जलाया जाता है। डब्ल्यू.डब्ल्यू. ग्रीनर (W.W. Greener) के अनुसार कार्तूस का निर्माण हालैंड में हुआ, किंतु कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि वेनिस निवासियों ने हालैंडवासियों से बहुत पूर्व (सन् 1376 ई. में) ही गोले बारूद का प्रयोग प्रारंभ कर दिया था। इस समय तक संसार के सभी प्रमुख राष्ट्र भूयुद्धों में तोपों का खूब प्रयोग करने लगे थे, किंतु समुद्री युद्धों में तोपों का प्रयोग वार करनेवाले के लिये खतरनाक समझा जाता था। फ्रांस के एक कप्तान ने पहली बार अपनी लंबी तोपों से क्षैतिज दिशा में तोपों का प्रयेग प्रारंभ किया। इन गोलों की सहायता से उसने सन् 1690 ई. में चार अंग्रेजी नावों को नष्ट करने और बाद में दो डच जहाजों को डुबाने में सफलता पाई। 18वीं शताब्दी के अंत और 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में लगभग सभी राष्ट्रों ने जलसेना में तोपों का उपयोग प्रारंभ कर दिया। सन् 1822 ई. में हेनरी पेक्साँ (Henri Paixhans) ने, जो फ्रांस की जलसेना में जनरल था, एक नवीन रीति का विकास किया। उसने वाष्पचलित नौकासमूहों पर ऐसी तोपें लगाने की डिजाइन बनाई जिनसे अधिक दूर तक और अधिक वेग से गोले फेंके जा सकें। इन प्रयोगों से तोप के गोलों के जलसेना में प्रयोग को बड़ा प्रोत्साहन मिला।
18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भूयुद्धों में क्षैतिज तोपों का प्रयोग चलने लगा। जिब्रास्टर पर घेरा डालते समय (सन् 1779-83) अंग्रेजों ने स्पेनवासियों पर नियमित रूप से 24 पाउंडर तोपों से गोलाबारी की। बाद में हेनरी शार्पल ने गोलाकार खोलों में स्थित ऐसे गोलों का आविष्कार किया जो साधारण गोलों से भिन्न थे। इस नये खोल में एक रिक्त गोलाकार प्रक्षिप्त में गोलियाँ गला दी गई थीं और बारूद की केवल उतनी मात्रा भरी गई थी जो खोल को फाड़ डालने में समर्थ हो सके। जब फ्यूज काम करता था तब गोला फट जाता था और उसमें स्थित गोलियाँ आगे की दिशा में सब ओर फैल जाती थीं और शत्रुपक्ष को दबाए रखती थीं। आजकल प्रयुक्त होनेवाले शार्पनल प्रक्षिप्तों में बारूद के द्वारा गति में 300 फुट प्रति सेकंड की वेगवृद्धि हो जाती है। कतिपय एसे अस्त्र जो पहले उपयोग में लाए जाते थे, किंतु अब व्यवहृत नहीं होते, निम्नांकित हैं:-
(क) कारकास (Carcass) लोहे के एक गोलाकार खोल के रूप में रहता है, जिसमें ज्वलनशील पदार्थ भरा रहता है। संचालित स्फोटक की दीप्ति से यह पदार्थ जल उठता है और लकड़ी आदि अन्य ज्वलनशील पदार्थो में आग लगा देता है।
(ख) ग्रेप (Grape) में लोहे की गोलियाँ रहती हैं। ये तीन विभिन्न तलों में धातु की चादरों से विभाजित कर दी जाती हैं। कम परास के लिये ये विशेष उपयुक्त पाई गईं।
(ग) बारशाट (Bar shots) का उपयोग जलसेना में किया जाता था। वार करने पर ये गोलियाँ सब ओर फैल जाती थीं और यदि अपने लक्ष्य तक पहुँच जाती थीं ते विशेष हानि पहुँचाने में समर्थ होती थीं।
(घ) शृंखला शाट (Chain Shots) भी बारशाट (Bar Shot) की ही भाँति बनाए गए थे। इनमें दो गोलार्ध एक सुदृढ़ शृंखला से जोड़ दिए जाते थे। तोप के नासिकाग्र से निकलते ही ये दोनों गेलार्ध अलग-अलग हो जाते थे और इनकी पारस्परिक दूरी शृंखला की लंबाई के बराबर रहती थी।
19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में गोलों के निर्माण में विशेष विकास हुआ। प्रक्षिप्त को ऐसा बनाया जाने लगा कि वह लक्ष्य से टकराकर विस्फोट कर सके। समयानुसारी, अर्थात् निश्चित समय पर जल उठने वाले, फ्यूज के उपयोग से ऐच्छिक स्थान पर विस्फोट करना संभव हो गया। प्रक्षिप्त का मुख तोप के नासिकाग्र की ओर रखा जाता था और प्रक्षिप्त का आकार ताप की नली के व्यास से सदैव ही कम रखा जाता था। इस प्रकार से जलने पर बारूद से उत्पन्न गैस की पर्याप्त मात्रा तोप और गोले के बीच से निकल जाती थी। इससे काफी गैस और तज्जनित शक्ति का ्ह्रास हो जाता था।
19वीं शताब्दी के मध्य में तोपखानों में राईफल के समान अस्त्रों का प्रयोग होने लगा। राइफल की नली में बनी नालियों के कारण परास और लक्ष्यवेध की सच्चाई में अवश्य वृद्धि हुई, किंतु विस्फोटक चूर्ण कठिन हो गया। धीरे धीरे बारूद के गुणधर्म को श्रेष्ठतर बनाया गया और तोपों को बनाने की विधि में और उनके निर्माण में प्रयुक्त धातु के चुनाव से स्फोटकों का प्रयोग ठीक से करना संभव हो गया। विश्व के सभी प्रमुख देशों के आविष्कारकों ने इस दिशा में प्रयोग करके राइफल वर्ग के अस्त्रों और प्रक्षिप्तों का विकास किया।
बंदूकों और तोपों को चलाते समय उनकी नली और कार्तूस के बीच से जो गैसें निकल जाती थीं उनके कारण शक्ति का बड़ा ्ह्रास होता था। इस बरबादी को रोकने के लिये सार्डीनिया के मेजर कावालि (Cavalli), स्वेडन के बैरन वहरनडर्फ (Baron Wahrendorf), इंलैंड के डब्ल्यू. आर्म्सस्ट्रॉङ्ग, जर्मनी के ए. क्रुप और फ्रांस के दे बांगे (De Bange) ने अनवरत प्रयत्न किए। इन प्रयत्नों के फलस्वरूप ऐसे प्रक्षिप्तों का आविष्कार संभव हो सका जिनका व्यास बंदूक की नली के आंतरिक व्यास के बराबर था। अब प्रक्षिप्त को बंदूक की नली में बनी नालियों में से वर्तुलाकर मार्ग से जाना पड़ता था। बंदूक की नली से होकर जाते हुए उसका व्यास बंदूक की नली के व्यास के बराबर बनता जाता था। इस प्रकार क्रमश: प्रत्येक आकार और प्रकार के कार्तूस बनाए जाने लगे।
जब राइफल के समान कार्य करनेवाली तोपें बन गई और लंबे कार्तूसों का प्रयोग होने लगा तब तोपों के नामकरण में गड़बड़ी हाने लगी। प्रारंभ में तोपों का नामकरण उनमें प्रयुक्त गोले के भार के अनुसार होता था, यथा 6 पांउडवाली तोप का बोर 3.67 इंच के लगभग होता था, क्योंकि 6 पाउंड भार के ढले हुए लोहे के गोले का व्यस 3.55 इंच होता है। इसी प्रकार 12 पाउंडवाली तोप का बोर 4.62 इंच 18 पाउंडवाली तोप का बोर 5.3 इंच, 24 पाउंडवाली तोप का बोर 5.82 इंच इत्यादि। किंतु वर्तुलाकार कार्तूसों के निर्माण से 10 पाउंड का कार्तूस अब 3 इंच व्यास की नलीवाली तोप से चलाया जा सकता है, जब कि 10 पाउंड का गोला 4.75 इंच बोर से ही चलाया जा सकता है। धीरे धीरे तोप के नामकण की पुरानी विधि, जो उसके द्वारा फेंके जानेवाले गोले के भार पर आधारित थी, अब त्याग दी गई है और नामकण की नई विधि प्रयोग में लाई जाने लगी है, जो किसी तोप को उसकी नली के बोर के अनुसार इंचों या मिलीमीटरों में व्यक्त करती है।
अब तोपखाना अधिक प्रभावशाली हो गया है और अधिक परास तक ठीक से वार करने में भी समर्थ हो गया। तोपों की नलियों के निर्माण में सुधार होने से लक्ष्यसाधन के लिये नियंत्रण संभव हो गया। धीरे धीरे जलनेवाली बारूद, जो फ्यूज का काम देती थी, अब अधिक अच्छे फ्यूजों से स्थानांतरित कर दी गई। पहले विश्वयुद्ध से वायुयानों का युद्ध में प्रयोग होने लगा। वायुयानों को मार गिराने के लिये वायुयान निरोधी तोपखाने के लिये अधिक विश्वसनीय फ्यूज की आवश्यकता हुई। इस कमी को पूरा करने के लिये ऐसे यांत्रिक फ्यूज बनाने का प्रयत्न चला जो निश्चित समय पर जलें। फ्यूज के लंबे अक्ष में छिद्र कर लिया गया। इस छिद्र के आधार में स्फोटक टोपी और उसके नीचे विस्फोटक पदार्थ शृंखंला की योजना की गई। कार्तूस छोड़ने पर ये टोपी कार्तूस के भार के साथ स्ट्राइकर से टकराती है। स्ट्राइकर छिद्र में स्वतंत्रतापूर्वक चलता रहता है और स्थिर हो जाता है। इसे विपरीत कार्तूस संवेग प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार उत्पन्न क्षणिक दीप्ति से विस्फोटक श्रृखंला जल उठती है और कार्तूस चल जाता है। फ्यूज की यही व्यवस्था आजकल भी प्रयुक्त हो रही है।
अब राइफल वर्ग के हथियरों की शक्ति और परास में बहुत वद्धि हो गई है। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में तोपों में पीछे की ओर से भरी जानेवाली विधि में पूर्णता लाई गई। तोपों और गोले बारूद को निर्माणविधि में आवश्यक परिवर्तन किया गया। आर्म्सस्ट्रॉङ्ग सेगमेंट कार्तूस इसी प्रकार के कार्तूसों में से हैं। इस कार्तूस का बाहरी खोल ढले हुए पतले लोहे का रहता है। खोल के भीतर एक ही पदार्थ से निर्मित सात वृत्तखंडों की छ: परतें रहती हैं। इन वृत्तखंडों की परतों के बीचोबीच केंद्रवर्ती अक्ष में काले चूर्ण का विस्फोटक रहता है। साथ ही समयानुसारी फ्यूज और स्फोटक टोपी की भी व्यवस्था रहती हे। कार्तूस के अक्ष के आगेवाले सिरे पर स्फोटक टोपी रहती है। इसके पृष्ठ भाग पर स्ट्राइकर का आघात पड़ता है। कार्तूस का खोल एकाएक रुक जाता है। इस प्रकार कार्तूस के खोल के यकायक रुक जाने पर जो गतिरोध उत्पन्न होता है उसी अधिक्रिया वे स्वरूप कार्तूस चल जाता है। कार्तूसों के निर्माण में गतिरोध के इस सिद्धांत का विशेष ध्यान रख जाता है। इस प्रकार के कार्तूस मनुष्यों पर वार करने के लिये तो उपयुक्त थे, किंतु किलेबंदी और गोलेबारूद से सुसज्जित लोह की मोटी चादरों से निर्मित यानों के विरुद्ध बेकार थे। इस कमी को दूर करने के लिये कार्तूसों के आकार प्रकार और उनके निर्माण में आवश्यक पदार्थो पर प्रयेग किए गए। पहला विश्वयुद्ध प्रारंभ होने के समय धूमहीन संचालकों और उच्च मानवाले विस्फोटकों का उपयोग होने लगा था। उस समय से कार्तूसों के आकार प्रकार में परिवर्तन अवश्य हुआ है, किंतु अब भी वे अच्छे गुणधर्म के ढले हुए लाहे से ही बनाए जाते हैं। पहले विश्वयुद्ध के पश्चात् कार्तूसों की रचना में भी परिवर्तन किए गए। बोर के कार्तूसों के लिये वेल्ड की हुई इस्पात की नलियाँ उपयोग में आने लगीं। इससे काम में लाने योग्य कार्तूसों का निर्माण संभव हे ग और उनके बनाने के लिये आवश्यक पदार्थ की कम मात्रा से काम चलने लगा। इस प्रकार जहाँ पहले तीन इंच के वायुयाननिरोधी कार्तूस का भार 23 पाउंड रखना पड़ता था, अब 13 पाउंड ही रखना पड़ता है। कार्तूसों में भरने के लिये भी अब नवीन रासायनिक पदार्थ प्रयुक्त होने लगे, जो आवश्यकतानुसार धुआँ छोड़ सकते थे, या सेना को परेशान कर सकते थे।
ढलवाँ लोहे से बने कार्तूसों के लिये चिकनाई लगाने की व्यवस्था केवल लक्ष्यवेध के अभ्यास के लिये ही की जाती है। शार्पनेल का प्रयोग अब भी रासायनिक पदार्थो के प्रतिरोध में किया जाता है, यद्यपि इसकी प्रतिशत मात्रा पहले की अपेक्षा बहुत कम रहती है।
कैनिस्टर (Canister) वर्ग के गोले बारूद का अब प्रयोग नहीं किया जाता। तोपखाने में कुछ ऐसे वर्ग के कार्तूस प्रयुक्त होते हैं जैसे दाहक बम, जिनमें फास्फोरस या इसी प्रकार का कोई अन्य ज्वलनशील पदार्थ रहता है; साथ ही दीवारों को फाड़ देनेवाला स्फोटक उचित मात्रा में उपस्थित रहता है। समय-फ्यूज की सहायता से दीप्ति होती है, जो एक पैराशूट अन्वेषक शेल से घिरी रती है। धुएँ या आग के निकलने से यह गोला दागनेवाले को लक्ष्य के संबंध में सूचना देता रहता है।
खई मॉर्टर गोला बारूद
यह तोपखाने से भिन्न प्रकार की रहती है। एक प्रकार का गोला बारूद बनाया गया है जिसके तीन इंच के कार्तूस का भार 12 पाउंड रहता है। इसका लघुतम परास 150 गज और अधिकतम परास 750 गज रहता है। 30 गज के अर्धव्यास की परिधि में यह प्रभावी होता है। इसे तोप में भरने के लिये आधार की ओर से तोप के नासिकाग्र में भरते हैं। मॉर्टर के निर्माण में धीरे धीरे सुधार किए गए और 60 मिलीमीटर, 75 मिलीमीटर और 8 मिलीमीटर आकार के मॉर्टर तैयार किए गए।
इन मॉर्टरों में प्रयुक्त होनेवले बम आकार में वायुयानों के बमों के समान रहते हैं। इन मॉर्टरों का परास 150 से लेकर 2,400 गज तक होता है और गोले का भार 3 से 7.45 पाउंड तक।
ग्रिनेड
बहुत पुराने समय से प्रयुक्त एक अन्य प्रकार के बम गोले को ग्रिनेड कहते हैं। विस्फोटक बमों की भाँति ये भी पर्याप्त समय से उपयोग में आ रहे हैं। ये हाथ से और राइफल से भी फेंके जाते हैं। हथगोलों का उपयोग बहुत कम परास के लक्ष्य के लिये होता है। केवल धुआँ उत्पन्न करने के लिये फास्फरस भरे हुए ग्रिनेडों का प्रयोग किया जाता है। दूसरे प्रकार के ग्रिनेडों में, जिनका उपयोग आक्रमण का प्रतिरोध करने के लिये किया जाता है, शक्तिशालीं विस्फोटक भी रहते हैं। तीसरे प्रकार के ग्रिनेड गैस ग्रिनेड कहलाते हैं। जब स्थायी हानि पहुँचाने की आवश्यकता नहीं होती तब परेशान करने के लिये इन ग्रिनेडों का उपयोग किया जाता है (देखें ग्रिनेड)।
वायुयान बम
ये बम चार वर्गों में विभाजित किए जा सकते हैं : (1) अभ्यास के लिये, (2) टुकड़े करने के लिये, (3) नष्ट करने के लिये तथा (4) रासायनिक बम। ये सब बम, उनके फ्यूज और बम छोड़ने की विधि ऐसी रहती है कि विमान से डालने पर टक्कर द्वारा या तो ये फट जायें या न फटें। अभ्यास के लिये बनाए गए बमों में बालू भरी जाती है और थोड़ा सा विस्फोटक चूर्ण भी रख दिया जाता है। ये बम 17 पाउंड से लेकर 300 पाउंड या अधिक भार के होते हैं। टुकड़े करनेवाले बम साधरणत: आकार में छोटे होते हैं, क्योंकि इन्हें थोड़ी संख्या के विरुद्ध काम में लाया जाता है। नष्ट करने के लिये जिन बमों का प्रयोग किया जाता है वे विनाश करते हैं और भूमि में छ: से लेकर 60 फुट तक अंदर घुस जाते हैं। ये भार में साधारणत: 100 से लेकर 2,000 पाउंड तक होते हैं। रासायनिक बमो में सभी प्रकार के रासायनिक पदार्थ प्रयुक्त होते हैं। इनसे परेशान करने के लिये गैसें या धुआँ भी छोड़ा जाता है। दाहक बमों में कोई न कोई दाहक पदार्थ भरा रहता है, किंतु इनका उपयोग सीमित है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ