गौतम
गौतम
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4 |
पृष्ठ संख्या | 47 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
लेखक | विद्याभूषण |
संपादक | फूलदेव सहाय वर्मा |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
स्रोत | विद्याभूषण : हिस्ट्री ऑव इंडियन लॉजिक; गंगानाथ झा: 'न्यायसूत्र वात्स्यायन भाष्य' के अंग्रेजी अनुवाद की भूमिका; अठाले और बोडस : तर्कसंग्रह की भूमिका; गार्बे : फिलासफी ऑव इंडिया। |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | रामचंद्र पांडेय |
गौतम संस्कृत साहित्य में गौतम का नाम अनेक विद्याओं से संबंधित है। वास्तव में गौतम ऋषि के गोत्र में उत्पन्न किसी व्यक्ति को गौतम कहा जा सकता है अत: यह व्यक्ति का नाम न होकर गोत्रनाम है। वेदों में गौतम मंत्रद्रष्टा ऋषि माने गए हैं। एक मेधातिथि गौतम धर्मशास्त्र के आचार्य हो गए हैं। बुद्ध को भी गौतम अथवा पाली में गोतम कहा गया है। न्यायसूत्रों के रचयिता भी गौतम माने जाते हैं। उपनिषदों में भी गौतम नामधारी अनेक व्यक्तियों का उल्लेख मिलता है। पुराणों, महाभारत तथा रामायण में भी गौतम की चर्चा है। यह कहना कठिन है कि ये सभी गौतम एक ही है।
रामायण में ऋषि गौतम तथा उनकी पत्नी अहल्या की कथा मिलती है। अहल्या के शाप का उद्धार राम ने मिथिला के रास्ते में किया था। अत: गौतम का निवास मिथिला में ही होना चाहिए और यह बात मिथिला में 'गौतमस्थान' तथा 'अहल्यास्थान' नाम से प्रसिद्ध स्थानों से भी पुष्ट होती है। चूँकि न्यायशास्त्र के लिये मिथिला विख्यात रही है अत: गौतम (नैयायिक) का मैथिल होना इसका मुख्य कारण हो सकता है।
नैयायिक गौतम के बारे में अनेक विद्वानों ने लिखा है। महामहोपाध्याय पं. हरप्रसाद शास्त्री का कहना है कि चीनी भाषा में निबद्ध प्राचीन भारतीय ग्रंथों के अनुवाद के आधार पर गौतम, बुद्ध के पहले हो गए थे परंतु उनके नाम पर प्रचलित न्यायसूत्र ईसा की दूसरी शताब्दी की रचना है। म.म. सतीशचंद्र विद्याभूषण का मत है कि गौतमीय धर्मसूत्र तथा न्यायसूत्र का कर्ता एक ही गौतमनामधारी व्यक्ति रहा होगा। ये बुद्ध के समकालीन रहे होंगे तथा इनका समय ६ठी शताब्दी ईसा पूर्व हो सकता है। परंतु विद्याभूषण यह भी मानते हैं कि इस गौतम ने न्यायसूत्र के केवल पहले अध्याय की रचना की होगी। बाद के चार अध्याय किसी और ने बहुत बाद में लिखे होंगे। प्रो. याकोबी के अनुसार न्यायसूत्र शून्यवाद के नागार्जुन (२०० ई.) द्वारा प्रतिष्ठापित हो जाने के बाद और विज्ञानवाद (५०० ई.) के विकास के पहले लिखा गया होगा क्योंकि इसमें शून्यवाद का तो खंडन है पर विज्ञानवाद का खंडन नहीं मिलता। परंतु प्रो. शेरवात्स्की के अनुसार न्यायसूत्र में विज्ञानवाद की ओर भी संकेत किया गया है। अत: यह ५०० ई. के बाद की रचना होगी। परंतु शेरवात्स्की का यह मत न्यायसूत्र को न समझने के कारण भ्रममूलक है। तर्कसंग्रह के संपादक आठले तथा बोडस के अनुसार गौतम के न्यायसूत्र कणाद से पहले के हैं। शबरस्वामी ने (मीमांसासूत्र भाष्य में) उपवर्ष से उद्धरण दिया है जिससे लगता है कि उपवर्ष न्याय से परिचित थे। यदि यह उपवर्ष महापद्म नंद के मंत्री ही हैं तो गौतम को ४०० ई.पू. का मानना ही पड़ेगा। प्रो. सुआली के अनुसार ये सूत्र ३००-३५० ई. के काल के हैं। रिचार्ड गार्वे के अनुसार आस्तिक दर्शनों में न्याय सबसे बाद का है क्योंकि ईस्वी सन् के आरंभ के पहले इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता। अत: ये सूत्र १००-३०० ई. के बीच लिखे गए होंगे। इन मतों में कौन सा सही है यह कहना वर्तमान स्थिति में नितांत असंभव है।
न्यायसूत्रों की रचना तथा गौतम का काल इन दो प्रश्नों पर अलग अलग विचार होना चाहिए। जहाँ तक न्यायसूत्रों का प्रश्न है, निश्चय ही ये सूत्र बौद्धदर्शन का विकास हो जाने पर लिखे गए हैं। इतना और भी कहा जा सकता है कि इस न्यायसूत्र में समय समय पर संशोधन तथा परिवर्धन होते रहे हैं। परतु गौतम का नाम इन सूत्रों से इसलिये संबंधित नहीं है कि ये सारे सूत्र अपने वर्तमान रूप में गौतम द्वारा ही विरचित हैं। गौतम को हम सिर्फ न्यायशास्त्र का प्रवर्तक कह सकते हैं, सूत्रों का रचयिता नहीं। हो सकता है, गौतम ने कुछ सूत्र लिखे हों, पर वे सूत्र अन्य सूत्रों में इतने घुलमिल गए हैं कि उनको अलग निकालना हमारे लिये असंभव है। इन दृष्टियों से हमें विद्याभूषण का मत अधिक मान्य लगता है।
गौतम को अक्षपाद भी कहते हैं। विद्याभूषण गौतम को अक्षपाद से पृथक् मानते हैं। न्यायसूत्र के भाष्यकार तथा अन्य व्याख्याताओं ने अक्षपाद और गौतम को एक माना है। 'अक्षपाद' शब्द का अर्थ होता है 'जिसके पैर में आँखें हों'। व्याकरण महाभाष्य[१] गौतम के सिद्धांतों से परिचित है।
गौतम न्यायशास्त्र के प्रवर्तक हैं। प्रमाणों के आधार पर अर्थ की परीक्षा करना न्याय कहलाता है, अत: यह मुख्यत: प्रमाणशास्त्र है। प्रमेय का भी इस दर्शन में विचार किया गया है पर वह गौण हो गया है। ज्ञान क्या है, कैसे उत्पन्न होता है, उसकी उत्पत्ति के कितने स्त्रोत हैं, उन स्त्रोतों के दोष कौन कौन से हैं, इनका विवेचन न्याय का विषय है। भारतीय परंपरा में 'न्याय' शब्द अंग्रेजी लॉजिक या तर्कशास्त्र का पर्यायवाची है। बौद्धों तथा जैनों ने भी अपनी तर्कपद्धति चलाई है और उन्हें भी बौद्धन्याय तथा जैनन्याय कहा जाता है। पर जहाँ केवल न्याय शब्द का प्रयोग हुआ है वहाँ 'न्याय' से संप्रदाय द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतोंश्का ही ग्रहण होता है।
इस संप्रदाय का मूल ग्रंथ न्यायसूत्र है जिसमें पाँच अध्याय हैं तथा प्रत्येक अध्याय दो आह्निकों में विभाजित है। सारे सूत्रों की संख्या ५३० है। प्रथम अध्याय में सामान्यत: उन १६ विषयों का वर्णन किया गया है जिनका विस्तृत प्रतिपादन बाद के चार अध्यायों में हुआ है। दूसरे अध्याय में संशय तथा प्रमाणों का विवेचन है। तीसरे अध्याय के प्रतिपाद्य विषय हैं आत्मा, शरीर, इंद्रिय, इंद्रियों के विषय, ज्ञान तथा मन। चतुर्थ अध्याय इच्छा, दु:ख, क्लेश और मोक्ष के स्वरूप का विवेचन करते हुए भ्रम के स्वरूप तथा अवयव एवं अवयवी के संबंध पर भी प्रकाश डालता है। पाँचवें अध्याय में जाति [२] और निग्रहस्थान[३] का विवेचन किया गया है।
प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टांत, सिद्धांत, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितंडा, हेत्वाभास, छल, जाति, और निग्रहस्थान इन १६ विषयों के तत्वज्ञान से नि:श्रेयस की प्राप्ति न्यायशास्त्र में मानी गई है। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द इन चार प्रमाणों से ज्ञान उत्पन्न होता है। वैशेषिक दर्शन में स्वीकृत सात पदार्थों का प्रमेय में अतंर्भाव हो जाता है। इसीलिये परवर्ती नैयायिकों ने न्याय को वैशेषिक के साथ संबद्ध कर दिया है।
न्याय में मुख्यत: वादविवाद की पद्धति का वर्णन है। कैसे किसी सिद्धांत का उपस्थापन किया जाता है, सिद्धांत के प्रति कितने आक्षेप हो सकते हैं, उनका परिहार किस तरह किया जा सकता है, ये ही न्याय के मुख्य प्रतिपाद्य हैं, कहा जाता है, कि गौतम ने ही सर्वप्रथम अनुमान के पाँच (प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन) अवयवोंवाले वाक्य का प्रचलन किया। ग्रीक दार्शनिक अरस्तू के अनुसार अनुमान तीन ही वाक्यों में संपन्न होता है। म.म. विद्याभूषण के अनुसार भारतीय न्याय में अवयवात्मक वाक्य की कल्पना अरस्तू के प्रभाव से उत्पन्न हुई है। परंतु प्रोफेसर कीथ का मत है कि न्याय की प्रारंभिक अवस्था में ग्रीक विचारधारा का प्रभाव मानने का कोई आधार नहीं है। गौतम की पंचावयव वाक्य की कल्पना उनके मस्तिष्क की ही उपज है।
भारतीय दर्शन प्रस्थानों में न्याय संभवत: सबसे अधिक प्रभावशाली प्रस्थान रहा है। न्यायसूत्रों में प्रतिपादित सिद्धांतों का बौद्ध आचार्य नागार्जुन ने खंडन किया। नागार्जुन का उत्तर देने के लिये वात्स्यायन ने न्यायसूत्रों पर भाष्य की रचना की। वात्स्यायन के ऊपर बौद्ध नैयायिक दिङ्नाग द्वारा किए गए आक्षेपों का परिहार करने के लिये उद्योतकर ने न्यायवार्तिक लिखा। न्यायवार्तिक पर न्यायवार्तिक तात्पर्यटीका तथा उसपर टीकापरिशुद्धि की रचना क्रमश: वाचस्पति मिश्र और उदयन ने की। इन ग्रंथों के अतिरिक्त न्यायमंजरी (जयंत भट्ट) न्यायसूत्रों की एक स्वतंत्र व्याख्या है। नव्यन्याय के प्रवर्तक गांगेशोपाध्याय ने तथा उनके अनुयाइयों ने भी गौतम द्वारा प्रदर्शित मार्ग का अनुसरण करते हुए अनेक ग्रंथ लिखे। न्यायदर्शन ने अनेक भारतीय दर्शनों को प्रभावित तथा तर्कपद्धति की उद्भावना देकर प्रेरित किया है। न्याय ही एक ऐसा संप्रदाय है जिसपर आज भी पंडितों में विशद रूप से चर्चा चल रही है।
गौतम ईश्वरवादी थे या नहीं, यह कहना कठिन है क्योंकि उनके सूत्रों में ईश्वर का स्पष्ट निर्देश कहीं नहीं है। बाद में ईश्वर का प्रतिपादन न्याय की एक विशेषता ही हो गई। मोक्षावस्था में न्याय के अनुसार आत्मा अपने सारे गुणों से रहित होकर अपने शुद्ध द्रव्य रूप में अवस्थित रहती है। बुद्धि, सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न और संस्कारों से परे आत्मा जब दु:खभाव रूप आनंद की अवस्था में अवस्थित हो जाती है, उसे मुक्त कहते हैं।