ग्वालियर
ग्वालियर
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4 |
पृष्ठ संख्या | 97 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | फूलदेव सहाय वर्मा |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
ब्रिटिश काल में ग्वालियर मध्य भारत की एक रियासत थी जो सन् १९५६ में राज्यपुनर्गठन के पश्चात् नवीन मध्यप्रदेश का एक जिला बनाया गया, जिसका नाम गिर्द है। ग्वालियर नगर इस जिले का केंद्र है। नगर की आबादी ३,५०,०८७ (१९६१) है। प्राचीन नगर किले के नीचे बसा है तथा वास्तविक केंद्र लश्कर उससे दो मील दूर है। १६वीं शताब्दी में ग्वालियर मालवा का एक प्रमुख नगर था। पत्थर पर नक्काशी करना, चमकीले खपरैल बनाना, जेवर तथा धातुओं के अन्य सामान बनाना यहाँ के प्रमुख व्यवसाय थे। यह नगर दक्षिण की ओर जानेवाले मार्ग पर पड़ता था। प्राचीन इमारतें तथा उनके अवशेष बड़ी संख्या में हैं जिनमें जामा मस्जिद, खंडोला खाँ की मस्जिद, नाजिरी खाँ, मुहम्मद गौस तथा तानसेन के मकबरे प्रमुख हैं।
ग्वालियर का किला भारत के प्रमुख किलों में से है। यह ३०० फुट ऊँची बलुआ पत्थर की पहाड़ी पर बना है जो १ १.२५ मील लंबी तथा अधिकतम २,८०० फुट चौड़ी है। छठी शताब्दी के बाद से यहाँ का इतिहास किले से संबद्ध है तथा यह क्रमश: राजपूत राजाओं, मुगल बादशाहों एवं मरहठों के आधिपत्य में रहा।
लश्कर, जो ग्वालियर का ही भाग है, आधुनिक नगर तथा मध्यप्रदेश का महत्वपूर्ण व्यावसायिक तथा व्यापारिक केंद्र है। यह दिल्लीबंबई मुख्य रेलवे लाइन का स्टेशन है तथा सड़कों द्वारा दिल्ली, उत्तर प्रदेश के नगरों तथा बंबई से जुड़ा है। यहाँ काँच तथा चीनी मिट्टी के बरतन सूती कपड़े, रेयन तथा बिस्कुट बनाने के कारखाने हैं।
ग्वालियर का इतिहास आधुनिक ग्वालियर तीन शहरों से निर्मित है। प्रथम प्राचीन ग्वालियर जिसके पीछे अनेक किंवदंतियाँ प्रसिद्ध हैं। यह किले के उत्तर है। द्वितीय लश्कर है जिसका निर्माण लगभग १८०० ई. में महाराज दौलतराव सिंधिया द्वारा सेना के शिवर के रूप में हुआ था तथा तृतीय मुरार है जो किले के पूर्व है और जिसका प्रयोग अंग्रेजों ने फौजी छावनी के रूप में किया था। ग्वालियर नगर की स्थापना की तिथि के बारे में अनेक मत हैं और यह प्रश्न अत्यधिक विवादग्रस्त है। प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता कनिंधम के अनुसार जिस समय तोरमाण के पुत्र पशुपति के काल में उसके मंत्री द्वारा सूर्यमंदिर की स्थापना हुई थी संभवत: उसी समय ग्वालियर दुर्ग और सूर्यकुंड भी अस्तित्व में आए। ग्वालियर की स्थापना के संबंध में एक प्रमुख किंवदंती यह है कि किसी समय कछवाहा नरेश सूर्यसेन कोढ़ से पीड़ित था। शिकार करते करते वह ग्वालिय (प) नामक एक साधु से मिला और इस साधु की कृपा से वह रोगमुक्त हो गया। सूर्यसेन ने उस साधु के नाम पर ग्वालियर दुर्ग का निर्माण करवाया और उसका नाम 'ग्वालिआवर' या 'ग्वालियर' रखा। महाभारत में ग्वालियर का उल्लेख 'गोपराष्ट्र' तथा इस प्रदेश से प्राप्त अभिलेखों में 'गोपाचल', 'गोपाद्रि', 'गोपगिरि' 'गोपांद्वय भूधर' इत्यादि नामों से प्राप्त हुआ है। संभवत: इन्हीं नामों से आगे चलकर इसका नाम ग्वालियर पड़ गया हो।
ग्वालियर के इतिहास का सर्वप्रथम ज्ञात उल्लेख मौर्यकाल का है। चंद्रगुप्त मौर्य के समय उज्जयिनी एवं विदिशा, जो ग्वालियर प्रदेश में ही स्थित थे, प्रमुख नगरों में से थे। युवराज के रूप में अशोक उज्जयिनी में रह चुके थे और विदिशा की 'देवी' से उन्होंने विवाह भी किया था। उज्जैन में अशोक का एक स्तूप भी प्राप्त हुआ है तथा विदिशा के पास भी एक स्तूप के कुछ अंश प्राप्त हुए हैं। मौर्यों के पश्चात् उनके उत्तराधिकारी शुंग संभवत: विदिशा के ही निवासी थे। ग्वालियर राज्य के वेसनगर में यूनानी राजदूत हेलियोदोरस का एक स्तंभलेख भी प्राप्त हुआ है जो तक्षशिला के ग्रीक शासक का दूत था।
शुंगों के पश्चात् विदिशा पर नागों (भारशिवों) का अधिकार हो गया जिनकी राजधानी पद्मावती, दूसरा नाम पदम पुवैया था, ग्वालियर राज्य में ही स्थित थी। इस वंश का प्रमुख शासक वीरसेन था। गुप्त वंश के प्रतापी राजा समुद्रगुप्त ने गणपति नाग को हराकर इस प्रदेश पर अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया था। यह भी कहा जाता है कि चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ने विदिशा के पास ही डेरा डालकर शक क्षत्रपों का विनाश किया था। कुमारगुप्त के पश्चात् के किसी गुप्त सम्राट् का अभिलेख इस प्रदेश में नही मिला है।
गुप्तों के पश्चात् इस प्रदेश में प्रसिद्ध हूण शासक मिहिरकुल के १५वें वर्ष का एक अभिलेख मिलता है जिससे यह पता लगता है कि उसका यहाँ अधिकार था। हूणें के पश्चात् ग्वालियर प्रतिहारों के अधिकार में आ गया और मिहिरभोज के समय तो वह शासन का प्रधान क्षेत्र बन गया। १०वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में कच्छपघाट के शासक वज्रदामन ने इसे प्रतिहारों से छीन लिया और ११२९ ई. तक यह उसके आधिपत्य में रहा। उस वंश के अंतिम शासक तेजकरण से प्रतिहारों की एक दूसरी शाखा ने इसको छीन लिया। ग्वालियर थोड़े समय को छोड़कर १२३२ ई. तक इसी के अधिकार में रहा।
१२३२ ई. में इल्तुतमिश ने इस पर अपना अधिकार कर लिया तथा १३९८ तक यह दिल्ली के मुस्लिम शासकों के अधिकार में रहा। तैमूर के आक्रमण से फैली हुई अराजकता से लाभ उठाकर तोमर वंशीय राजपूत शासक वीरसिंहदेव ने उसपर अधिकार कर लिया। तोमरों का अधिकार ग्वालियर पर १५२५ ई. तक रहा। इस काल के शासकों में डुंगरसिंह और मानसिंह अधिक प्रसिद्ध हैं जिन्होंने अनेक बहुमूल्य जैन कलाकृतियों का निर्माण कराया था। मानसिंह के पश्चात् ग्वालियर पर इब्राहीम लोदी का अधिकार हो गया। लोदियों के पश्चात् इसपर मुगलों का आधिपत्य हुअ परंतु हुमायूँ के भारत से पलायन के पश्चात् शेरशाह ने इस पर विजय प्राप्त की और इस्लामशाह के पश्चात् उसके उत्तराधिकारियों के समय ग्वालियर उनके राज्य की एक शाखा की एक राजधानी भी बा। १५५९ में वह एक बार पुन: मुगलों के अधिकार में आ गया और लगभ दो शतब्दियों तक उन्हीं के अधिकार में रहा। इस काल में इसका प्रयोग मुख्यत: राजकीय कारावास के रूप में ही होता था।
१७५४ में मराठों ने इसपर अधिकार कर लिया और १७७७ ई. के आसपास पेशवा ने ग्वालियर को सिंधिया परिवारवालों को सौंप दिया। १७९४ में दौलतराव सिंधिया ग्वालियर के शासक बने। इन्होंने अपनी सेना को फ्रांसीसी ढंग से शिक्षित किया और १८०३ ई. से राघो जी भोंसले के साथ निजाम पर चढ़ाई भी की। परंतु सर आर्थर वेलेजली और लार्ड लेक ने इनको बुरी तरह हराया। ग्वालियर और दोहद सिंधिया से छीन लिए गए परंतु १८०५ में एक नई संधि के अनुसार दोनों प्रदेश सिंधिया को वापस कर दिए गए।
१८२७ में दौलतराव की मृत्यु के पश्चात् ब्रिटिश सरकार ने मूगतराव नामक एक बालक को ग्वालियर के सिंहासन पर बैठाया जो जनकोजी सिंधिया के नाम से प्रसिद्ध हुए। १८४३ में जनकोजी की मृत्यु के पश्चात् जयाजी राव नामक एक ८ वर्ष का बालक दत्तक पुत्र के रूप में उनका उत्तराधिकारी हुआ। १८८५ में विद्रोहियों ने ग्वालियर पहुँचकर जयाजी राव को वहाँ से भागने को विवश किया परंतु शीघ्र ही अंग्रजों ने इसपर अपना अधिकार जमाया। १८८६ में ग्वालियर झाँसी के बदले हमेशा के लिये सिंघिया राजाओं को प्राप्त हो गया।
१९४७ में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् जिस समय देशी रियासतों का भारत में विलयन प्रारंभ हो गया उस समय ग्वालियर भी सिंधिया वंश के हाथ से निकलकर भारत संघ में संमिलित हो गया।
ग्वालियर के प्रमुख ऐतिहासिक स्थानों में मुहम्मद गौस का मकबरा, जामा मस्जिद,[१] हिंडोला, [२] गूजरीमहल[३] चतुर्भुज मंदिर[४] मानसिंह द्वारा निर्मित मानमंदिर, सास बहू मंदिर, माघवराव सिंधिया द्वारा निर्मित सरदार स्कूल, तथा तेली का मंदिर, महाराज महल, आदि उल्लेखनीय हैं।
ग्वालियर दुर्ग
समय समय पर क्रमश: विभिन्न शासकों के अधिकार में रहे ग्वालियर दुर्ग का प्राकृतिक, ऐतिहासिक, पुरातात्विक और सामरिक महत्व भारत के अन्य दुर्गों में अप्रतिम है। यह दुर्ग उत्तर से दक्षिण तक एक मील छह फर्लांग लंबी, ३०० फुट ऊँची, और ६०० से २८०० फुट चौड़ी बालुकाप्रस्तर की पहाड़ी के समतल और नीरव शिखरभाग पर अवस्थित है। यह आगरा से ७३ मील दक्षिण और झाँसी से ६४ मील उत्तर लगभग ३० फुट ऊँची दीवालों से निर्मित है। इसका प्रारंभिक इतिहास विवादास्पद है। इसके अंतर्गत छह महलों में मानमंदिर (मानसिंह का महल) और गूजरी महल प्राचीन भारत की वास्तुकला के उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। अनेक मंदिरों में से अब केवल सात ही शेष हैं। यह उत्तर भारत के सभी दुर्गों में अधिक मनोरम है।
अंतर दुर्ग
यह ग्वालियर के सभी दुर्गों में सबसे विशाल और चंबल नदी की घाटी में स्थित होने के कारण सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। १८ वीं शताब्दी में सिंधिया ने राजपूतों को पराजित कर इसपर अधिकार कर लिया। इसका निर्माण देवगिरि कोट के नाम से महाराज बदनसिंह द्वारा १६४४ में आरंभ हुआ और १६६८ में महाराज महासिंह ने इसे पूर्ण किया।
भिंड दुर्ग
४०० फुट लंबा और २५० फुट चौड़ा छोटा सा दुर्ग है। गोपालसिंह भदौरिया नामक राजपूत सरदार ने इसका निर्माण किया था। १८ वीं शताब्दी में यह सिंधिया वंश के अधिकार में चला गया।
चंदेरी
ग्वालियर के तीन मुख्य पहाड़ी दुर्गों में इसका प्रमुख स्थान है। प्रस्तरनिर्मित १२ से १५ फुट तक ऊँची दीवालों से घिरा यह दुर्ग जिस शिखर पर स्थित है, उसकी लंबाई उत्तर दक्षिण ४,५०० फुट और चौड़ाई पूर्व-पश्चिम ३,२०० फुट है। इस दुर्ग का उल्लेख अल्बरूनी (१०३०) और इब्नबतूता (१०३६) ने किया है। शिलालेखों के अनुसार यह प्रतिहार वंश के १३ राजाओं का केद्र रहा। उसी वंश के सातवें राजा कीर्तिपाल ने इसका निर्माण कीर्ति दुर्ग के नाम स कराया था। उपलब्ध फारसी शिलालेखों के अनुसार दिलावर खाँ गोरी ने १४११ में इसे अधिक मजबूत किया। १३०४ में अलाउद्दीन खिलजी ने इसे जीता। इसके पश्चात् इसपर अनेक आक्रमण हुए और दुर्ग पर अधिकार बदलते रहे।
देवगढ़ दुर्ग
यह ऊँची पहाड़ी पर स्थित है। दतिया राज्य की सीमा से लगे प्रदेश इसे दुर्ग के क्षेत्र में पड़ते हैं। इसके इसका सामरिक महत्व बढ़ गया है। उत्तर दक्षिण कोई २,००० फुट लंबी और पूरब पश्चिम ३५० फुट चौड़ी दुर्ग की दीवालें पत्थर और चूने से निर्मित हैं। इसके संबंध में ऐतिहासिक तथ्य अनुपलब्ध हैं।
गोहद दुर्ग
ग्वालियर से उत्तर पूर्व २० मील दूर वैशाली नदी के तट पर स्थित है। पूर्व पश्चिम १,००० फुट लंबी और उत्तर दक्षिण ८०० फुट चौड़ी दुर्ग की दीवालें बहुत विशाल और भारी पत्थरों तथा चूने से बनी हुई हैं। इसके अंदर की इमारतों में पुराना महल, नया महल और राना की छतरी मुख्य हैं। १८ वीं शताब्दी में जाटों ने इसपर अधिकार किया। इसके बाद यह भदौरिया और पेशवा के अधिकार में आया। अंत में अंग्रेजों के हस्तक्षेप से सिंधिया वंश ने दुर्ग पर आधिकार कर लिया।
करेरा दुर्ग
यह झाँसी-शिवपुरी मार्ग पर स्थित है। यद्यपि अब यह काफी घ्वस्त हो चुका है, फिर भी देखने में मनोरम है। ११५ फुट ऊँची पहाड़ी पर बने पूर्व-पश्चिम लगभग १९०० फुट लंबे और उत्तर दक्षिण ७०० फुट चौड़े दुर्ग के अदंर की इमारतें वास्तुकला की दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं हैं। यह उल्लेख मिलता है कि करेरा दुर्ग सबसे पहले परमारों के हाथ में था। १७२६ में मुहम्मद शाह ने परमारों से यह दुर्ग छीन लिया। इसके बाद इसके बाह्य अंगों में वृद्धि की गई। कालांतर में इसपर मरहठों का अधिकार हुआ। १८३८ में अंग्रेजों ने इसे अपने हाथ में लिया और १८६० में सिंधिया को सौंप दिया।
नरवर दुर्ग
नरवर जिले में ग्वालियर से दक्षिण-पश्चिम ५० मील दूर स्थित है। यह ग्वालियर राज्य के सभी दुर्गों में प्रमुख और क्षेत्रफल तथा ऊँचाई की दृष्टि से सबसे बड़ा है। प्राचीनता और ऐतिहासिक महत्व की दृष्टि से ग्वालियर दुर्ग के बाद इसी का स्थान है। यह लगभग ध्वस्त हो चुका है, फिर भी इसकी वास्तुकला प्रशंसनीय है और उससे भारत के प्राचीन शिल्प का परिचय प्राप्त होता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ