चंद्रशेखर वेंकट रमण
चंद्रशेखर वेंकट रमण
| |
पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4 |
पृष्ठ संख्या | 144 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | फूलदेव सहाय वर्मा |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | प्यौत्र अलेक्सीविच बारान्निकोव |
चंद्रशेखर वेंकट रमण, भारतीय वैज्ञानिक, का जन्म ७ नवंबर, १८८८ को दक्षिण भारत के त्रिचनापल्ली नगर में हुआ। इनकी शिक्षा पहले ए.वी.एन. कालेज, त्रिचनापल्ली, में और तदनंतर प्रेसिडेंसी कालेज, मद्रास, में हुई। इन्होंने १९०४ ई. में बी.ए. और १९०७ ई. में एम.ए. की परीक्षाएँ उच्चतम विशेषताओं के साथ उत्तीर्ण कीं। फिर भारतीय वित्त विभाग में अधिकारी (१९०७-१९१७), कलकत्ता विश्वविद्यालय में भौतिकी के पालित प्रोफेसर (१९१७-१९३३) तथा बंगलोर के भारतीय विज्ञान संस्थान के भौतिकी विभाग के अध्यक्ष (१९३३-१९४८) रहे। १९४८ से ये बंगलोर में रमण अनुसंधान संस्थान के निदेशक और भौतिकी के राष्ट्रीय अनुसंधान के प्रोफेसर हैं।
इनके पिता विशाखपत्तनम् में गणित और भौतिकी के अध्यापक थे। पिता से गणित और भौतिकी का अध्ययन इन्होंने बाल्यकाल से ही शुरू किया। कालेज के अध्ययनकाल में ही इन्होंने शोधकार्य प्रारंभ कर दिया था। इनका पहला वैज्ञानिक निबंध 'फिलॉसॉफिकल मैगैज़ीन' में प्रकाशित हुआ। वैज्ञानिक आजीविका की संभावना न देख इन्होंने भारतीय वित्त विभाग में प्रवेश के लिये प्रतियोगिता की और सफल होने पर १० वर्षों तक इस विभाग की सेवा की। इन दिनों कामचलाऊ उपकरणों से वैज्ञानिक शोध कार्य में ये रत रहे और अनेक अनुसंधान निबंध प्रकाशित किए, जिसके फलस्वरूप कलकत्ता विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्रोफेसर नियुक्त हुए। आर्थिक हानि सहकर भी इन्होंने यह पद स्वीकार कर लिया और १६ वर्षों तक प्रोफेसर रहे। फिर वहाँ से बँगलोर आए और अब तक वहीं कार्य कर रहे हैं।
भारत के वैज्ञानिक जीवन के अनेक क्षेत्रों में रमण ने अपना स्थान बना लिया है। इन्होंने अनेक प्रयोगशालाओं को सुसज्जित किया है और अंत में बंगलोर में रमण अनुसंधान संस्थान स्थापित कर विज्ञान के अनुसंधान में रचनात्मक सहयोग प्रदान किया है। इन्होंने इंडियन जर्नल ऑव फिजिक्स नामक पत्रिका की और इंडियन ऐकेडमी ऑव सायॅस नामक संस्था की १९३४ ई. में स्थापना की। 'करेंट सायंस' नामक मासिक पत्रिका का भी संचालन कर रहे हैं। इन्होंने गत ५० वर्षों में सैकड़ों छात्रों का पथप्रदर्शन कर उन्हें शैक्षणिक, वैज्ञानिक और प्रशासनिक क्षेत्रों में ऊँचे पदों पर प्रतिष्ठित किया है।
इनके प्रथम अनुसंधान तारवाले वाद्यों पर थे। पीछे इन्होंने प्रकाशिकी (Optics) पर कार्य कर 'रमण प्रभाव' (देखें, रमण प्रभाव) का अविष्कार किया, जिसपर उन्हें दिसंबर, १९३० ई. में नोवेल पुरस्कार मिला। इस अनुसंधान से भौतिकी के अन्य क्षेत्रों के अनुसंधान कुछ समय तक फीके पड़ गए। प्रकाशिकी के साथ साथ ध्वानिकी पर भी इनका अनुसंधान महत्वपूर्ण रहा है। इन्होंने पराश्रव्य (ultrasonic) और अतिध्वानिक (hypersonic) आवृत्ति की ध्वनितरंगों से प्रकाशविवर्तन को सैद्धांतिक और प्रायोगिक अध्ययन किया है। मणिभों पर प्रकाश के प्रभाव से मणिभों के प्रकाशप्रकीर्णन, संदीप्ति (luminiscence) और प्रकाशअवशोषण से संबंधित वर्णक्रमीय व्यवहार का अध्ययन कर उन्होंने मणिभ गतिकी (Crystal Dynamics) की नींव डाली और हीरे, लेब्राडोराइट (Labradorite), चंद्रकांत (Moontsone), गोमेद (Agate), दूधिया पत्थर (Opal) और मोतियों (Pearls) के प्रकाशीय व्यवहार का विस्तार से अध्ययन किया। आजकल वे मानव नेत्र तथा प्रकाश और वर्ण के प्रत्यक्ष ज्ञान से संबंधित अनुसंधान में लगे हुए हैं।
१९२४ ई. में रमण ग्रेट ब्रिटेन की रॉयल सोसायटी के फेलो निर्वाचित हुए और इसके पाँच वर्ष बाद इन्हें नाइट की उपाधि प्राप्त हुई। दिसंबर, १९३० ई. में 'रमण प्रभाव' पर इन्हें नोबेल पुरस्कार मिला। अन्य सम्मानों में इन्हें रोम का मेट्यूसी पदक १९२८ में, रॉयल सोसायटी, लंदन, का ह्यूज पदक १९३० ई. में तथा फिलाडेलफिया के फ्रैंकलिन इन्स्टिट्यूट का फ्रैंकलिन पदक १९४१ ई. में प्राप्त हुए। ये पैरिस और रूस की विज्ञान अकादमी, अमरीका की आप्टिकल सोसायटी और अनेक अन्य सोसायटियों तथा विद्वत्परिषदों के विदेशी सदस्य हैं। अनेक भारतीय तथा विदेशी विश्वविद्यालयों से इन्हें डाक्टर की सम्मानित उपाधियाँ मिली हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ