चतुरंगिणी
चतुरंगिणी
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4 |
पृष्ठ संख्या | 154 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | रामप्रसाद त्रिपाठी |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | रामाश्कंर भट्टाचार्य |
चतुरंगिणी प्राचीन भारतीय संगठित सेना। सेना के चार अंग- हस्ती, अश्व, रथ, पदाति माने जाते हैं और जिस सेना में ये चारों हैं, वह चतुरंगिणी कहलाती है। चतुरंगबल शब्द भी इतिहासपुराणों में मिलता है। इस विषय में सामान्य नियम यह है कि प्रत्येक रथ के साथ 10 गज, प्रत्येक गज के साथ 10 अश्व, प्रत्येक अश्व के साथ 10 पदाति रक्षक के रूप में रहते थे, इस प्रकार सेना प्राय: चतुरंगिणी ही होती थी।
सेना की सबसे छोटी टुकड़ी (इकाई) 'पत्ति' कहलाती है, जिसमें एक गज, एक रथ, तीन अश्व, पाँच पदाति होते थे। ऐसी तीन पत्तियाँ सेनामुख कहलाती थीं। इस प्रकार तीन तीन गुना कर यथाक्रम गुल्म, गण, वाहिनी, पृतना, चमू और अनीकिनी का संगठन किया जाता था। 10 अनीकिनी एक अक्षौहिणी के बराबर होती थी। तदनुसार एक अक्षौहिणी में 21870 गज, 21970 रथ, 65610 अश्व और 109350 पदाति होते थे। कुल योग 218700 होता था। कहते हैं, कुरुक्षेत्र के युद्ध में ऐसी 18 अक्षौहिणी सेना लड़ी थी। अक्षौहिणी का यह परिमाण महाभारत (आदि पर्व 2/19-27) उल्लिख्ति है। महाभारत में (उ. पर्व 155/24-26) में सेना परिमाण की जो गणना है, उससे इस गणना में कुछ विलक्षणता है। शांतिपर्व 59/41-42 में अष्टांग सेना का उल्लेख है, उसमें भी प्रथम चार यही चतुरंगिणी सेना है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ