चमगादड़ गण

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लेख सूचना
चमगादड़ गण
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4
पृष्ठ संख्या 156
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक रामप्रसाद त्रिपाठी
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक भृगुनाथ प्रसाद मुकर्जी

चमगादड़ गण (चर्मचटक, Chiroptera) स्तनधारी (mammalia) वर्ग का एक गण है, जिसके अंतर्गत सभी प्रकार के चमगादड़ निहित हैं। इस वर्ग के जंतु अन्य स्तनियों से बिल्कुल भिन्न मालूम पड़ते हैं और इसके सभी सदस्यों में उड़ने की शक्ति पाई जाती है। उड्डयन के लिये इनकी अग्रभुजाएँ पंखों में परिवर्तित हो गई हैं। यद्यपि ये जंतु हवा में बहुत ऊपर तक उड़ते हैं, पर चिड़ियों से भिन्न हैं। देखने में इनकी मुखाकृति चूहे जैसी मालूम होती है। इनके कान होते हैं। चिड़ियों की भाँति ये अंडे नहीं वरन्‌ बच्चे देते हैं और बच्चों को दूध पिलाते हैं।

चमगादड़ के हाथ और अँगुलियाँ उसके पंख के कंकाल हैं। अन्य रीढ़धारियों की अग्र शाखाओं के आधार पर इनका भी निर्माण हुआ है। उत्तर बाहु कोहिनी तक समाप्त होती है। अग्र बाहु में युग्म अस्थियाँ होती हैं और हाथ में अँगूठे के अतिरिक्त चार अँगुलियाँ होती हैं। अँगूठा छोटा और स्वतंत्र होता है, किंतु अन्य अँगुलियाँ बहुत बड़ी और त्वचीय पंखझिल्ली में गड़ी होती हैं। उनके छोर पर नख होते हैं और वे छाते की कमानी की भाँति खूलती और सिकुड़ती हैं। पंख से लगी त्वचा पैर तक चली जाती है और दोनों पैरों के बीच तक लगी होती है इसे अंतर-ऊरु-झिल्ली (Interfemoral membrane) कहते हैं। यह इनको भी लपेट लेती है। अंतर-ऊरु-झिल्ली के अतिरिक्त सहायक उड़नझिल्ली (Accessory flying membrane) होती है, जिसे पूर्वाबाहु झिल्ली (Ante-brachial membrane) कहते हैं, जो गर्दन के भाग से प्रारंभ होकर प्रगंडिका (Humerus) तथा अग्रबाहु तक जुड़ी होती है। इस प्रकार चमगादड़ के शरीर पर एक पैराशूट जैसी त्वचा होती है। हवा में उड़ने के लिये इन रचनाओं के अतिरिक्त चमगादड़ का वक्षीय कोष्ठ बड़ा होता है, जिसमें एक बड़ा हृदय और फुफ्फुस स्थित होते हैं। वक्ष से लगी मांसपेशियाँ भली भाँति विकसित होती हैं। ये तीनों रचनाएँ, पैराशूट जैसी त्वचा, बृहदवक्षीय कोष्ठ तथा विकसित मांसपेशियाँ, चमगादड़ के आकाश में अधिक देर तक उड़ते रहने में सहायक होती हैं।

चमगादड़ की अग्र शाखाएँ यद्यपि पंख में परिवर्तित हो गई हैं, तथापि अन्य अस्तनियों की भाँति वह इनका उपयोग चलने और पेड़ों पर चढ़ने के लिये करता है। इनसे वह शिकार को पकड़ने और उन्हें मारने का भी काम लेता है।

अँगूठे रेंगने तथा चलने और विश्राम करने के काम आते हैं। फलभक्षी चमगादड़ में ये अँगूठे दो, किंतु कीटभक्षी में एक होता है।

अग्र भुजाओं और अग्र शरीर की अपेक्षा पश्च शाखाएँ और पश्च शरीर कमजोर होते हैं। शरीर की सारी रचना इस प्रकार हुई है कि वह उड्डयन के लिये अत्यधिक उपयोगी सिद्ध हो। कुछ चमगादड़ पृथ्वी पर नहीं चल पाते हैं और कुछ अग्र और पश्च शाखाओं की सहायता से केकड़े की तरह थोड़ी तेजी से चल सकते हैं।

चमगादड़ का अस्थिपंजर तथा पंखों की झिल्ली

1. उरोस्थि; 2. हँसुली (Clavicle); 3. प्रगंडिका (Humerus); 4. पूर्वबाहु झिल्ली (Antebrachial membrane); 5. बहि: प्रकोष्ठिका (Radius); 6. अंत: प्रकोष्ठिका (Ulna); 7. करभास्थियाँ (Metacarpal bones); 8. प्रथम अंगुलास्थि (Phalanx); 9. द्वितीय अंगुलास्थि; 10. तृतीय अंगुलास्थि; 11. प्रजंधिका (Tibia); 12. बहिर्जंधिका (Fibula); 13. कैल्कार (Calcar); 14. ऊर्बस्थि (Femur); 15. अंतरऊरु झिल्ली (Interfemoral membrane)।

दाँत और भोजन - चमगादड़ निशिचर होता है। दिन में यह पक्षियों तथा पशुओं के भय से बाहर नहीं निकलता, वरन्‌ किसी पेड़ की डाल अथवा पुराने खंडहरों में लटका रहता है। गोधूलि के समय बाहर निकल कर आखेट करता है। चमगादड़ प्राय: कीट-पंतग और फल-फूल खाते हैं।

कीटभक्षी चमगादड़ उड़ते ही उड़ते छोटे छोटे कीटों को झपाटा मारकर पकड़ लेता है और उसी समय अथवा नीचे उतर कर उन्हें खाता है। फलाहारी चमगादड़ पेड़ों पर ही अथवा अपने अड्डे पर फल लाकर खाता है। चमगादड़ बड़े पेटू होते हैं। सभी फलाहारी चमगादड़ मकरंद, मधुरस या फल के रस का ही पान करते हैं। उसके ठोस पदार्थ का नहीं। फलाहारी चमगादड़ के दाँत कीटाहारी चमगादड़ से भिन्न होते हैं। कीटाहारी चमगादड़ के दाँत नुकीले और तीक्ष्ण होते हैं, जिनमें वह गुबरैले या घुन के कवच (shell) का वेधन कर सके। वह कीट का कड़ा भाग काटकर अलग फेंक देता है और उसके मुलायम भाग को ही खाता है। कुछ चमगादड़, जैसे वैंपायर्स (Vampires), रुधिर चूसने वाले होते हैं और उनके अग्रदंत प्राणियों की त्वचा छेदने के उपयुक्त होते हैं। चमगादड़ों के दाँत भिन्न भिन्न प्रकार के होते हैं। ये उनके वर्गीकरण में सहायक होते हैं।

वर्गीकरण - बोल्ड पाठभोजन के आधार पर चमगादड़ दो उपगणां में बँटे हैं : (1) बृहद् या फलाहारी (Megachiroptera) तथा (2) लघु या कीटाहारी (Microchiroptera)।

नल नासिकावाला फलाहारी चमगादड़ (Tube-nosed Fruit Bat) ये चमगादड़ साधारणत: कीटभक्षी भी होते हैं।

मिथ्या वैंपायर (False Vampire) मेगाडरमिडी कुल का यह चमगादड़ भारत तथा दक्षिणी एशिया के देशों में पाया जाता है।

बृहद् चमगादड़ फलाहारी और आकार में बड़े होते हैं। कुछ तो इतने बड़े होते हैं कि परों को दोनों ओर फैलाकर नापने से वे लगभग 1.36 मीटर ठहरते हैं। लघु चमगादड़ कीटाहारी और छोटे होते हैं। कुछ चमगादड़ रक्तचूषक होते हैं और मेढक, मछली तथा स्तनियों का रक्त चूसकर जीवन निर्वाह करते हैं। कुल मिलाकर चमगादड़ों के सात परिवार हैं, जिनके अंतर्गत करीब 100 वंश (genus) और अनेकों जात (species) हैं। भिन्न भिन्न जात के चमगादड़ों में पूँछ भिन्न भिन्न प्रकार की होती है। किसी में बड़ी, किसी में छोटी और किसी में लेश मात्र ही होती है। फलाहारी चमगादड़ों की पूँछ स्पष्ट होती है और अंतरऊरु झिल्ली के नीच स्थित होती है। इस झिल्ली से पूँछ का कोई संबंध नहीं होता। रीनोलोफिडी (Rhinolophidae) परिवार के अश्वनाल (Horse shoe) चमगादड़ में पूँछ स्पष्ट होती है, किंतु मेगाडरमिडो (Megadermidae) परिवार के भारतीय वैंपायर मेंकेवल उसका चिन्ह मात्र होता है। दुम अंतरऊरु झिल्ली के लिय सहारे का कार्य करती है और आगे या पीछे मुड़कर इस झिल्ली की गतिविधि का भी नियंत्रण करती है। इसके अतिरिक्त दुम और इसको ढकनेवाली झिल्ली उदर की ओर मुड़कर उड़ते समय गतिरोधक का काम करती है। यह शिकार को पकड़ने के लिये धानी (pouch) का काम भी करती है। उड़ते समय पंख के थपेड़े से कीड़े जब मूर्छित होकर आकाश से नीचे गिरने लगते हैं, उस समय चमगादड़ कीड़े को बड़ी चतुराई से इसी धानी में ऊपर ही ऊपर रोक लेता है और उसमें सिर घुसेड़कर कीड़े को मार डालता है। कुछ चमगादड़ इस थैली से अपने नवजात शिशु के लिये पालने (cradle) का कार्य लेते हैं।

ज्ञानेंद्रियाँ - चमगादड़ रात्रि में भोजन करते हैं। वे अँधेरे में भी सुगमता और तेजी से उड़ते रहते हैं। बहुतों में इस प्रकार की आश्चर्यजनक शक्ति होती है कि वे अँधेरे में किसी अवरोध से टकरा नहीं पाते। गोधूली या प्रात:बेला में निकलनेवाले चमगादड़ों में दृष्टि अवश्य काम करती है, किंतु चमगादड़ की कुछ जातियाँ ऐसी हैं जो पथप्रदर्शन के लिये दृष्टिशक्ति पर बहुत कम निर्भर रहती हैं। चमगादड़ की आँखों पर पट्टी बाँध देने पर भी उसके उड़ने या अन्य क्रियाओं में अंतर नहीं पड़ता। हाल के शोधों से पता चला है। कि चमगादड़ प्रतिध्वनि यंत्र (echo apparatus) का प्रयोग करते हैं। उनकी अपनी एक प्रकार की 'राडार' (radar) प्रणाली होती है। कान इस यंत्ररचना का प्रमुख अंग है। चमगादड़ उड़ने के पूर्व और उड़ते समय अपनेमुख या नासाद्वार से एक प्रकार की चीखतनी तीव्र गति से करता है कि वह मनुष्य की साधारण श्रवण शक्ति के बाहर होती है। यह चीख हवा में ध्वनितरंगें उत्पन्न करती है। जब ये ध्वनितरंगे किसी अवरोध से टकराती हैं, तब वे परावर्तित होकर चमगादड़ तक पहुँच जाती हैं और इन्हें वह तत्काल ग्रहण कर लेता है। इस प्रकार की प्रतिध्वनि से चमगादड़ किसी अवरोध की दूरी तथा स्थिति का सही सही पता लगा लेता है। चमगादड़ को प्रतिध्वनि का बोध किसी एक ज्ञानेंद्रिय द्वारा नहीं, बल्कि कई ज्ञानेंद्रियों की मिली जुली सहायता से होता है। इन इंद्रियों में श्रवण ज्ञानेंद्रिय अधिक प्रमुख है। कीटभक्षी चमगादड़ अधिक संवेदी और तीक्ष्ण होते हैं।

अन्य किसी स्तनी में बाह्म कर्ण (Pinna) के विकास और आकार में इतनी विविधता नहीं है जितनी चमगादड़ में। कीटभक्षी चमगादड़ के कान का किनारा कान की जड़ के पास नहीं मिला होता, किंतु फलाहारी चमगादड़ में यह किनारा जड़ के पास मिलकर वलयी कीपनुमा छिद्र बनाता है। कीटभक्षी जाति के चमगादड़ों में इसके अतिरिक्त प्रवर्धन भी वर्तमान होता है, जिसे ट्रेगस (Tragus) कहते हैं। यह कान के भीतरी किनारे से लगा होता है। बाहरी किनारे के आधार के पास एक एक पिंड होता है, जिसे ऐंटिट्रेगस (Anti-tragus) कहतें हैं। यह किसी किसी चमगादड़ में बहुत बड़ा होता है। फलाहारी चमगादड़ में न तो ट्रेगस और न ऐंटिट्रेगस होते हैं। कीटाहारी चमगादड़ों में नाक के चारों तरफ फैली हुई त्वचा एक प्रकार की संवेदनग्राही इंद्रिय होती है, जिसे नासापत्र (Nose leaf) कहते हैं। वैंपायर चमगादड़ में यह नासापत्र छोटा और साधारण किंतु अश्वनाल रिनोलोफस (Rhinolophus) और पत्रनासाधारी (Leaf-nosed) हिप्पोसिडिरस (Hipposidirus) में बड़ी तथा जटिल होती है। इसके चुन्नटों में बारीक सवेदनशील लोम होते हैं, जो एक प्रकार की ज्ञानेंद्रिय हैं। निशिचर चमगादड़ों के लिये, जो पेड़ों तथा झाड़ियों में अपना शिकार ढूँढ़ते हैं, यह एक विशिष्ट साधन है। छोटे चमगादड़ कुछ रात बीतने पर शिकार की टोह में निकलते हैं, लेकिन 'उड़न लोमड़ियाँ' संध्या होते ही निकल पड़ती हैं। इनमें दृष्टि पथप्रदर्शक होती है, किंतु अँधेरे में ये अनपेक्षित अवरोधें से बच निकलने में असमर्थ होते हैं। इसलिये प्राय: टेलिफोन या टेलीग्राफ के तार से टकराकर उससे लटके पाए जाते हैं।

उड़ता हुआ मूषककर्ण चमगादड़ (Myotis Lucifugus)

विस्तार - अधिकांश चमगादड़ों में किसी विशेष प्राकृतिक वातावरण में रहने की प्रवृत्ति पाई जाती है। उदाहरणार्थ, उड़न लोमड़ियाँ अफ्रीका की मुख्य भूमि से 40 मील दूर स्थित द्वीपों में पाई जाती हैं, किंतु वे अफ्रीका महाद्वीप में नहीं बस पाई हैं। ये हिंद महासागर में फैली द्वीपश्रृंखलाओं में भी पाई जाती हैं। प्रत्येक जाति किसी द्वीपविशेष में ही पाई जाती है। भारत में चमगादड़ हिमालय के समशीतोष्णकटिबंध में नहीं पाए जाते। फल की ऋतुओं में, अथवा रात्रि में, वे भले ही वहाँ चले जाते हों। उष्ण कटिबंध में उनका प्रधान क्षेत्र प्रायद्वीप के उन स्थानों में है जहाँ हरियाली, आर्द्र पर्णपाती और शुष्क पर्णपाती भूकटिबंध हैं। कुछ जातियाँ रेगिस्तान या कँटीले वनक्षेत्र में जहाँ मनुष्य ने फलवृक्ष लगा रखे हैं, बस गई हैं। यही बात कीटभक्षी चमगादड़ों की भी है। पंखधारी और प्राकृतिक अवरोधें को पार करने की क्षमता होते हुए भी चमगादड़ का विस्तार वातावरण की जलवायु, ताप तथा अन्य प्राकृतिक स्थितियों पर निर्भर करता है।

चमगादड़ को हम अँधेरे में वास करने वाला समझते हैं, किंतु अनेक फलाहारी और कीटाहारी चमगादड़ संध्या के चमकीले प्रकाश में शिकार करते हैं और अन्य निशिचर जानवरों की भाँति बदली और कुहरे के मौसम में दिन में ही शिकार करने के लिये निकल पड़ते हैं। कुछ चमगादड़ों का बसेरा तो ऐसे स्थान में होता है, जहाँ प्रकाश बहुत होता है; किंतु यह अपवाद है।

शीत निष्क्रियता (Hibernation) और प्रवसन (Migration) - उत्तरी ध्रुवीय देशों में अधिकांश चमगादड़ शीतकाल में खंडहरों, घंटाघरों, कंदराओं और जंगलें में निष्क्रिय पड़े रहते हैं, क्योंकि वातावरण के ताप के गिरने से इसकी शारीरिक क्रिया बिलकुल मंद हो जाती है और ये निद्रावस्था में हो जाते हैं। ऐसे उष्ण स्थान में जहाँ भोजन की अधिकता होती है ये प्रवास करते हैं। भारतीय चमगादड़ों की शीतनिष्क्रियता और प्रवसन के विषय में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है, किंतु यूरोपीय जातें, जो हिमालय के शीतोष्ण भाग में बस गई हैं, शीतनिष्क्रिय रहती हैं। भारतीय पिपिस्ट्रेल (Indian pipistrelle), जो शिमला में प्राय: अन्य ऋतुओं में पाए जाते हैं, जाड़े में बिल्कुल ही अदृश्य हो जाते हैं। गर्मी की भीषणता वस्तव में चमगादड़ों को व्याकुल कर देती है और वैसी अवस्था में ये अपने दाएँ या बाएँ पंख से हवा झलते पाए गए हैं। चमगादड़ के दैनिक जीवन पर कम वर्षा का प्रभाव नहीं पड़ता।

दीर्घ जिह्वावाला पुष्पाहारी चमगादड़ (Long-tongued flower Bat) फूलों के अतिरिक्त यह कीट भी खाता है।

चमगादड़ और वनस्पति - जिस ऋतु और क्षेत्र में फलफूल की अधिकता रहती है, वहाँ चमगादड़ों का बाहुल्य रहता है। जननकाल और फलफूल लगने की ऋतु में भी एक समन्वय होता है। लघुनासिकाधारी, फलभक्षी चमगादड़ को ताड़ का पेड़, उड़नलोमड़ियों की विस्तृत बरगद, गूलर अथवा इमली के पेड़ तथा धनी बँसवारी भी पंसद होती है। उड़नलोमड़ियाँ किसी पेड़ या पेड़ों पर साल भर अड्डा बनाए रहती हैं।

आर्थिक दृष्टि से चमगादड़ मनुष्य के लिये हानिकारक और उपयोगी दोनों है। कुछ जाति के लोग चमगादड़ का, विशेषत: उड़नलोमड़ी का, मांस खाते हैं।

चमगादड़ के शत्रु - नेवला, उल्लू और बाज चमगादड़ के प्रमुख शत्रु हैं, किंतु चमगादड़ के वास्तविक शत्रु अनेक प्रकार की परोपजीवी मक्खियाँ हैं और कुछ सीमा तक पिस्सू तथा किलनियाँ हैं, जो उनके परों और त्वचा के खून को चूसते हैं अतएव परोपजीवियों से त्राण पाने के लिये चमगादड़ अपने पैर के नखर से बराबर अपने पर के बालों में कंघी करते रहते हैं। कभी कभी इसके लिये वे दाँत की भी सहायता लेते हैं।

रक्षा के साधन - तेज उड्डान की शक्ति ही इनकी रक्षा का प्रमुख साधन है। झुंड में रहने की आदत भी सदस्यों की परस्पर रक्षा की दृष्टि से लाभदायक होती है। कुछ जातियों के चमगादड़ों में गंधग्रंथियाँ और थैलियाँ होती हैं, जो त्वचा की सतह पर खुलती हैं और उनसे एक प्रकार की तीव्र गंध निकलती है। यह शत्रुओं और मनुष्यों को विकर्षित करती है। ग्रंथियाँ मादा की अपेक्षा नर में प्राय: अधिक विकसित होती हैं। चमगादड़ के शरीर का रंग भी रक्षा का एक अन्य साधन है।

सामाजिक जीवन - उड़नलोमड़ियों अथवा फलाहारी चर्मचटकों में भोजनक्षेत्र का बँटवारा होता है या नहीं, यह निश्चित रूप से ज्ञात नहीं; किंतु कीटारी चर्मचटकों में इस प्रकार की व्यवस्था है। कुछ हवा में ऊँचे पर, कुछ नीचे और कुछ मध्य में शिकार करते हैं। अधिकांश चमगादड़ झुंड में रहनेवाले होते हैं, किंतु यह नियम अपरिवर्तनीय नहीं है, क्योंकि कई भारतीय जातियों के चमगादड़ प्राय: अकेले अथवा युग्मों में रहते पाए जाते हैं। झुंड में न तो किसी प्रकार की सामाजिक व्यवस्था होती है और न किसी प्रकार का नेतृत्व ही। प्रत्येक सदस्य स्वतंत्र होता है और उसका अपने से ही मतलब होता है। इनका पारिवारिक जीवन भी अल्पकालिक होता है। माँ बाप और संतान में अधिक दिनों तक संबंध नहीं रहता। उड़नलोमड़ियाँ बसेरे के वृक्ष से एक ही एमय भिन्न भिन्न दिशाओं में उड़ती हैं, किंतु प्रत्येक अपने मनमाने रास्ते पर ही चलती हैं।

चमगादड़ के बच्चे भी अन्य प्राणियों के बच्चों के सदृश लगातार चिल्लाकर अपनी माँ को बुलाते हैं।

जनन ऋतु - चर्मचटकों का प्रजनन काल जलवायु तथा प्राकृतिक स्थितियों पर निर्भर करता है। साधरणत: शरद ऋतु के अंत में मैथुन ऋतु होती है। अधिकांश मादाएँ इसी समय शुक्राणु ग्रहण करती हैं, यद्यपि इस समय गर्भाधान नहीं होता और शुक्राणु गर्भाशय में संचित रहते हैं। वसंत ऋतु के अंत में जब सुप्तकाल समाप्त हो जाता है और क्रियाशीलता पुन: प्रारंभ हो जाती है, तब अंड का शुक्र से संयोग और निषेचन होता है। अनावश्यक शुक्राणु बाहर निकाल दिए जाते हैं। अधिकांश चर्मचटक फूल तथा फल लगने की मृत्यु ऋतु के ठीक कुछ समय पूर्व बच्चे जनते हैं। पश्चिमी किनारे में बंबई के समीप उड़नलोड़ियाँ प्राय: सितंबर और अक्टूबर में मैथुन करती हैं और मार्च या अप्रैल के मध्य तक बच्चे जनती हैं।

चमगादड़ का विकास - चर्मचटक में पर का विकास कैसे हुआ, यह ज्ञात नहीं है। किंतु जीवाश्मों (fossils) से पता चलता है कि जिस समय पाँच अँगुलीवाले घोड़े और टापीर (Tapir) जैसे हाथी इस पृथ्वी पर विचरण कर रहे थे उन दिनों भी चमगादड़ आज के ही चमगादड़ जैसे थे और उनमें उड़ने की क्षमता थी। मध्य इओसिन (Middle Eocene) युग की चट्टानों से प्राप्त अमरीकी जीवाश्म के चमगादड़ भी आधुनिक कीटभक्षी चमगादड़ के सदृश ही थे। दुर्भाग्य है कि जीवाश्म से चर्मचटकों में उड़ान भरने की शक्ति की उत्पत्ति और विकास की कड़ी पर प्रकाश् नहीं पड़ता और न उनके पूर्वजों का पता लगता है।



टीका टिप्पणी और संदर्भ