चर्मपूरण
चर्मपूरण
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4 |
पृष्ठ संख्या | 176 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | रामप्रसाद त्रिपाठी |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | भृगुनाथ प्रसाद मुकर्जी |
चर्मपूरण (Taxidermy) मृत प्राणियों को सुरक्षित रखने तथा उन्हें जीवित सदृश व्यवस्थित कर प्रदर्शित करने की एक विधि है। प्रकृति विज्ञान (Natural History) के संग्रहालयों में प्राय: इस प्रकार के प्राणी, जैसे मछलियों, उरगों, चिड़ियों और स्तनी प्राणियों, जैसे गिलहरी, हिरण, शेर, रीछ, बंदर तथा अन्य जंगली प्राणियों का उनके प्राकृतिक वातावरण में प्रदर्शन किया जाता है। संग्रहालयों के इन प्राणियों को देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि वे मूक जीवित प्राणी हैं।
चर्मपूरण का इतिहास - संग्रहालयों के लिये, अथवा किसी शिकार था यात्रा के स्मरण के लिये, प्राणियों की खाल, सींग तथा करोट अस्थियाँ रखी जाती थीं, उसी से चर्मपूरण कला का प्रारंभ हुआ। प्रथम मनुष्य ने चमड़े को रासायनिक क्रियाओं द्वारा पकाकर उससे ओढ़ने और बिछाने की चादरें इत्यादि तैयार की। 18वीं सदी में विषैले रसायनकों की खाज से, जिनके प्रयोग से चमड़े, बाल, तथा चिड़ियों के पर क्षतिकारक कीटों से रक्षित किए जा सकते हैं, व्यक्तिगत तथा राजकीय संग्रहालयों में चिड़ियों और स्तनी प्राणियों का विपुल संख्या में संग्रह संभव हो गया। उस समय से निरंतर प्रयास के कारण चर्मपूरण की कला का क्रमश: विकास होता रहा है। शिकारी चिड़ियों, मछलियों और विशेषत: सींगधारी स्तनी प्राणियों का चर्मपूरण व्यावसायिक तौर पर भी होने लगा है। फ्लोरेंस के राजकीय संग्रहालय में संभवत: चर्मपूरण का सबसे प्राचीन उदाहरण भारतीय गैंडा है। संभवत: वह 16वीं शती में तैयार किया गया था। स्विट्जरलैंड के सेंट गाल (St. Gall) के संग्रहालय में नील नदी में पाया जानेवाला घड़ियाल सन् 1627 से रखा है और आज वह तीन शताब्दियों से सुरक्षित है। इस प्रकार के विदेशी तथा विरल प्राणियों का संग्रह, विजय स्मारक (trophies) की अपेक्षा शिक्षा के उद्देश्य से, प्रकृति विज्ञान के संग्रहालयों में प्रारंभ हुआ।
प्रारंभ में जानवरों की खाल उतारकर उसमें घास भूसा भरकर सीने और उनसे जानवरों की आकृति तैयार कन की चेष्टा होती रही। बाद में घास भूसे की जगह अन्य उन्नत और उत्तम वस्तुआंे का प्रयोग होने लगा। इस प्रकार की विधि से नमूने के बाल या पर भले ही दिखाई पड़ते थे, किंतु वे जीति सदृश नहीं दिखाई पड़ते थे और उनकी आकृति का ठीक ठीक प्रदर्शन नहीं होता था। 19वीं शताब्दी में चर्मपूरण कला को सुधारने का समुचित प्रयास हुआ और नमूने उपयुक्त वनस्पति, रंगीन पृष्ठभूमि और प्राकृतिक वातावरण में प्रदर्शित किए जाने लगे।
विधि - इस कला का प्रथम सिद्धांत यह है कि जैसे ही नमूना प्राप्त हो, ताजी और स्वच्छ अवस्था में ही उसकी खाल इस प्रकार उतार ली जाय कि यदि मछली या उरग हो तो शल्क (Scales), चिड़ियाँ हों तो पर और स्तनी प्राणी हों तो बाल या कोमल लोम किसी प्रकार क्षतिग्रस्त न होने पाएँ। इस कार्य के लिये कुछ औजारों और अन्य वस्तुओं के अतिरिक्त दीर्घ प्रयत्न और धैर्य की आवश्यकता होती है।
चर्मपूरण के लिये आवश्यक औजार और सामग्री - औजारों की सूची में तीक्ष्ण चाकू (जिनमें कुछ नुकीले और कुछ कुंठित), कैंची, प्लायर्स, कतरनी (cutting nippers), सुई, पतले लंबे चपटे मुँहवाले प्लायर्स (Flat nosed pliers) और टेकुआ या सूजा (Awls) इत्यादि हैं। इनके अतिकरक्त अन्य सामग्री, जैसे पटुआ या सन, रूई, भरने के लिये अन्य वस्तु (Wadding), धागे, लोहे के तार या पतले छड़, ऊँट के बालों की कूँचियों आदि की भी आवश्यकता होती है।
रसायनक - खाल, पर, बाल या शल्क को सुरक्षित रखने के लिये प्राय: आर्सेनिक साबुन के मिश्रण का प्रयोग होता है। आर्सेनिक साबुन तैयार करने की सामग्री और विधि निम्नलिखित है :
सफेद् साबुन 2 पाउंड
साल्ट ऑव टार्टर 12 आैंस
चूने का चूर्ण 4 आैंस
आर्सेनिक (संखिया) का चूर्ण 2 पाउंड
कपूर 5 आैंस
आर्सेनि साबुन बनाने की विधि - 2 पांउड सफेद साबुन को काटकर उबाला जाता है और उसमें 12 आैंस साल्ट ऑव टार्टर तथा 4 आैंस चूने का चूर्ण मिला दिया जाता है। जब यह विलयन करीब करीब ठंड़ा पड़ जाता है, तब उसमें अलग से खरल में स्पिरिट में घुलाया गया दो पाउंड संखिए का चूर्ण और 5 आैंस कपूर का मिश्रण मिला देते हैं। अब इस मिश्रण को व्यवहार में लाने के लिये कांच के छोटे छोटे बरतनों में रख देते हैं। आर्सेनिक के यौगिक बड़े विषैले होते हैं। अत: इनके उपयोग में बड़ी सावधानी बरतनी चाहिए। असावधानी होने पर श्वास की क्षीणता, फोड़े, नाखून का झड़ना तथा अन्य रोग उत्पन्न हो सकते हैं। आर्सेनिक के स्थान पर एक दूसरा अधिक प्रभावशाली मिश्रण ब्राउन द्वारा इस प्रकार तैयार किया गया है :
सफेद कर्ड (curd) साबुन 1 पाउंड
ह्वाइटिंग (whiting) 3 पाउंड
क्लोराइड ऑव लाइम 1.5 आैंस
मुश्क का टिंक्चर 1 आैंस
विधि - 1 पाउंड सफेद कर्ड साबुन के साथ 3 पाउंड ह्वाइटिंग मिलाकर उबालते हैं और गरम रहते ही उसमें 1.5 आैंस क्लाराइड ऑव लाइम तथा 1 आैंस मुश्क का टिंक्चर मिला देते हैं। मिश्रण की उष्णावस्था में इस बात की सावधानी रखनी चाहिए कि इससे उत्पन्न वाष्प श्वास के साथ शरीर में प्रवेश न करे, क्योंकि उष्णावस्था में इस मिश्रण से क्लोरीन गैस निकलती है जो विषैली होती है। ठंडा होने पर यह मिश्रण संरक्षण के लिये अधिक उपयुक्त सिद्ध हुआ है।
संरक्षण कार्य के लिये रसपुष्प, कॉरोसिव सब्लिमेट (Corrosive sublimate), की भी बहुत अधिक प्रशंसा की जाती है। यह बहुत ही कार्यसाधक होता है, पर बहुत ही विषैला है।
कभी कभी टैनिन, काली मिर्च, कपूर तथा जली फिटकरी के चूर्णो का मिश्रण भी चर्मपूरण के लिये उपयोग में लाया जाता है। इस मिश्रण की विशेषता यह है कि खाल को यह शीघ्र ही शुष्क कर देता है, जिससे आरोपण (mounting) के लिय खाल कम समय में ही तैयार हो जाती है।
स्तनी प्राणियों की सुरक्षा के लिये 1 पाउंड जली हुई फिटकरी तथा 1.5 पाउंड शोरे का सम्मिश्रण बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुआ है। इन दोनों पदार्थो को भली भाँति मिलाकर चमड़े में अच्छी प्रकार रगड़ देना चाहिए। यदि मछलियों या उरगों का साँचा या मॉडेल (model) न बनाना हो तो परिशोधित स्पिरिट में उनका अच्छी प्रकार संरक्षण हो सकता है। यदि खर्च में कमी करनी हो तो परिशोधित स्पिरिट के स्थान पर मुलर का विलयन प्रयुक्त हो सकता है। मुलर के विलयन में निम्नांकित सामग्री रहती है :
बाइक्रोमेट ऑव पोटाश 2 आैंस
सल्फेट ऑव सोडा 1 आैंस
आसुत जल 3 पिंट
क्लोराइड ऑव ज़िंक के लगभग संयुक्त विलयन का उपयोग भी किया जा सकता है।
चिड़ियों के पर तथा स्तनी प्राणियों के मुलायम बालों की सफाई के लिये बेंजोलिन (benzoline) में रुई के पहल को डुबोकर उसपर हल्के हल्के रगड़ने के बाद प्लास्टर ऑव पेरिस के चूर्ण का छिड़काव किया जाना चाहिए। जब यह सूख जाय तब उसे चिड़ियों के पर की झाड़न से झाड़ देना चाहिए।
चर्मपूरण की सामान्य विधि - चर्मपूरण की तकनीकी में इधर बहुत सुधार हुए हैं। भराव (stuffing) की पद्धति का त्याग कर अब नए नए तरीके उपयोग में आ रहे हैं।
बड़े नमूने प्राप्त होने पर मृत जानवर की त्वचा की ठीक माप ले ली जाती है और खाल को बिल्कुल पादांगुलियों तक अलग कर उतार लेने के पश्चात् सुरक्षित रखने के लिये उसको रासायनिक यौगिक, जैसे आर्सेनिक साबुन, या फिटकरी, से उपचारित किया जाता है। साथ साथ प्राणी की मांशपेशियों, पसलियों और ऊबड़ खाबड़ भागों का चित्र तैयार किया जाता है। यह चित्र चर्मपूरक के लिये पथप्रदर्शक होता है। वह नाप और इस चित्र के आधार पर लकड़ी के टुकड़ों, चिकनी मिट्टी, या प्लास्टर ऑव पेरिस, या कागज की लुगदी की सहायता से प्राणी का ढाँचा तैयार करता है, जो उस प्राणी का बिल्कुल प्रतिरूप होता है। इस प्रतिरूप को मैनिकिन (manikin) कहते हैं। मैनिकिन तैयार करने में विशेष कुशलता की आवश्यकता होती है और इसमें प्राणी की सूक्ष्म से सूक्ष्म रचना, यहाँ तक कि उसकी मांसपेशियों की स्वाभाविक स्थिति तक का भी ध्यान रखा जाता है और जीवित अवस्था में प्राणी जिस स्वाभाविक मुद्रा में प्राय: रहता है, उसी मुद्रा में मैनिकिन तैयार किया जाता है। मैनिकिन का निर्माण हो जाने पर इसपर चिकनी मिट्टी (clay) की एक पतली पर्त चढ़ा दी जाती है और त्वचा को नापकर इसपर मढ़ दिया जाता है। त्वचा को उभड़े और धँसे भागों पर यथास्थान बैठाकर, जहाँ से खाल उतारते समय काटी गई थी, सी दिया जाता है। मुख, गुदा की श्लेष्मिक झिल्लियों, तालु, जीभ और ओष्ठ इत्यादि का प्लास्टिक द्रव्य से यथार्थ ढाँचा तैयार कर लिया जाता है। कृत्रिम आँखे लगा दी जाती हैं। साधारण शीशे की आँखों के बदले अब एक विशेष प्रकार से निर्मित, प्राकृतिक आँख के रंग से मिलती जुलती, खोखली ग्लोबस (globus) आँखे इस ढंग से लगा दी जाती हैं कि जानवर जीवित प्रतीत होने लगता है। आँखों का लगाना इस बात पर निर्भर करता है कि जानवर किस मुद्रा में है और मुद्रा के अनुकूल आँखें कैसे होनी चाहिए। सभी प्रकार की बड़ी मछलियों और चिड़ियों को भी इसी विधि से तैयार करते हैं और तैयार करने के बाद उन्हें रंगकर प्राकृतिक रंग दे दिया जाता है।
चिड़ियों का चर्मपूरण तथा आरोपण (mounting) - अधिकांश शौकिया चर्मपूरक प्राय: निम्नलिखित विधि को चुनते हैं : जिस नमूने का आरोपण करना हाता है उसके नासिकारध्राेंं तथा गले में रूई, ऊन अथवा सन ठूंसकर, उसे बंद कर देते हैं और दोनों पंखों की हड्डियाँ शरीर के पास से तोड़ देते हैं। चिड़िया की पीठ के बल मेज पर लिटाकर वक्ष के पास एक चीरा लगाते हैं। सफेद वक्षवाली चिड़ियों का पंख वक्ष के पास से न खोलकर, जिस ओर का पंख अधिक क्षत हो गया हाता है उसी ओर के पंख के निचले भाग में चीरा लगाते हैं जिससे थोड़ा दबाने पर, जाँघ बाहर आ जाय। तब इससे त्वचा को अलग करने के लिये चाकू का सधे हाथ से प्रयोग उस समय तक करते हैं जब तक खुले भाग की ओर की पंखास्थि न दिखाई पड़े। अब इसे कैंची से काट डालते हैं और बड़ी कुशलता से पीठ और वक्ष से त्वचा को अलग कर गर्दन को काटकर सिर से अलग कर लेते हैं। अब इसी हिस्से की बारी आती है। बाकी दोनों पैरों को काटने के पश्चात् बड़ी सावधानी से पेट और पश्च पृष्ठ भाग से त्वचा को अलग करते हुए दुम तक पहुँचते हैं, जिसे, कुछ अस्थियों को त्वचा से लगी ही छोड़कर, काट लेते हैं। अब त्वचा से कंकाल अलग हो जाता है और गर्दन तथा सिर के अतिरिक्त कुछ भी लगा नहीं रह जाता। गर्दन और सिर से खाल को अनावश्यक खींच तान किए बिना उतारना चर्मपूरक के धैर्य का परीक्षात्मक कार्य होता है। यह कार्य सिर के ऊपर से त्वचा का उलटकर पीछे स आगे की ओर धीरे धीरे अलग करके पूरा किया जा सकता है। परंतु इस बात का पूरा पूरा ध्यान रहे कि त्वचा की केवल निचली झिल्ली ही काटी जाय, जिससे आँखे बिना क्षतिग्रस्त हुए सुगमता से नेत्रकोटरों से अलग की जा सकें। त्वचा का चोंच के समीप तक अलग कर देने के पश्चात् सिर को, जहाँ वह गर्दन से जुड़ा होता है, अलग कर दिया जाता है और मस्तिष्कगुहा से मस्तिष्क की गुद्दी को निकलकर, करोटि, पंखास्थि, पैर तथा इनमें सारे मांस को अलग कर देने के बाद, त्वचा की भीतरी सतह पर संरक्षक रसायनक का लेप कर त्वचा को उचित स्थिति में उलट दिया जाता है। त्वचा को यदि किसी कैबिनेट (cabinet) के लिये तैयार करना होता है तो सिर और गर्दन का सन या रूई से भरकर धड़ भाग को कसे या ढीले, कृत्रिम ढाँचा कसा हो या ढीला, यह चर्मपूरक की अपनी दक्षता पर निर्भर करता है। अब औदरिक त्वचा की सिलाई कर, वक्ष तथा परों के ऊपर कागज को पिन से लगाकर किसी गर्म स्थान में, जहाँ धूल न पड़े, सूखने के लिये छोड़ दिया जाता है। सूख जाने के पश्चात् इसे साथ पक्षी का नाम, लिंग, प्राप्तिस्थान तथा प्राप्ति की तिथि इत्यादि का विवरण लगा दिया जाता है और कीटनाशक चूर्ण छिड़क दिया जाता है।
यदि नमूने को आरूढ़ करना होता है, तो किसी लोहे के तार के चारों तरफ सन लपेटकर शरीर की कृत्रिम आकृति बना ली जाती है और तार का नुकीला भाग गर्दन और करोटि से होते हुए बाहर निकाल लिया जाता है। पैर के तलवे से होकर एक नुकीले तार को पैर के ऊपरी भाग की त्वचा तक खींच लिया जाता है और अंत में उसे कृत्रिम शरीर से फँसा दिया जाता है। शरीर के निचले तल से होते हुए एक तार पंख के मजबूत भाग से फँसा दिया जाता है। तब लकड़ी की एक बैठकी पर चिड़िया के बैठने का स्वाभाविक अड्डा बनाकर, उसीपर उसको आरूढ़ कर कृत्रिम आँखें लगा दी जाती हैं और उसे प्राकृतिक मुद्रा में स्थिर कर दिया जाता है। चिड़िया को उसकी स्वाभाविक स्थिति में सजाना चर्मपूरक की कुशलता पर निर्भर करता है।
फॉसिल प्राणियों का पुन: निर्माण करना संभवत: चर्मपूरण कला का श्रेष्ठतम कार्य समझा जाता है; क्योंकि इसके लिय चर्मपूरक का भूगर्भ विज्ञान तथा युग युग के प्राणियों के क्रमिक विकास और ऐसे जीवित प्राणियों की, जिनका फॉसिल से सादृश्य हो, शारीरिक रचना तथा स्वभाव का अध्ययन करना आवश्यक होता है। अनेक बार तो फासिल प्राणी के कंकाल का कुछ अंश ही प्राप्त हो पाता है। उस समय चर्मपूरक के लिये अप्राप्त अंश की कड़ी तैयार करना सचमुच ही थकाने वाला कार्य हो जाता है और उस समय उसके लिये अपने विशिष्ट ज्ञान का भरपूर प्रयोग अत्यावश्यक हो जाता है। धनोपार्जन की दृष्टि से चर्मपूरण लाभप्रद नहीं है। अधिकांश चर्मपूरक अन्य विचारों से ही इस कला को अपनाते हैं। प्रमुख चर्मपूरक प्राय: किसी न किसी संस्था या संग्रहालय से संबंधित होते हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ