चार्ल्स फ़ीयर ऐंड्रज़
चार्ल्स फ़ीयर ऐंड्रज़
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2 |
पृष्ठ संख्या | 267 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | कैलासचंद्र शर्मा |
ऐंड्रूज़, चार्ल्स फ्ऱीयर (1871-1940 ई.) भारत में दीनबंधु ऐंड्रूज नाम से विख्यात। सर्वप्रथम महात्मा गाँधी ने ही उन्हें दीनबंधु के नाम से संमानित किया था। इंग्लैंड में टाइन नदी के किनारे बसे न्यू कैसल नगर में 11 फरवरी, 1871 ई. ऐंड्रूज़ का जन्म हुआ। इनके पिता जान एडविन ऐंड्रूज़ और माता शारलाट बड़ी सात्विक, धार्मिक तथा दयालु प्रवृत्ति की थीं। मानवप्रेम ऐंड्रूज ने अपनी माँ से रिक्त में पाया था। पवित्र अंत:करणवाले पिता से उन्होंने आध्यात्मिकता, भगवद्विश्वास तथा सत्यनिष्ठ प्राप्त की। उनका परिवार प्रारंभ से ही गरीब था। बैंक में उनकी माँ के नाम से अवश्य कुछ धन जमा था, लेकिन उसके धूर्त प्रमुख ट्रस्टी ने जालसाजी करके उक्त सारा धन उड़ा लिया और ऐंड्रूज परिवार इतना अकिंचन हो गया कि उसे सिर्फ सूखी रोटी खाकर गुजर करने तथा गरीबों की बस्ती में एक छोटे से मकान में रहने को विवश होना पड़ा। पर यही अकिंचनता ऐंड्रूज़ के लिए वरदान सिद्ध हुई और वे संसार भर के गरीबों को हृदय से प्रेम करने लगे जिससे अगे चलकर उन्हें दीनबंधु नाम मिला।
दीनबंधु ऐंड्रूज़ के मन में भारत के प्रति सहज ममता एवं आकर्षण था और अपने को भारतीय कहलाने की बचपन से ही उनकी उत्कट इच्छा थी। 33 वर्ष की आयु में उनका यह स्वप्न तब साकार हुआ जब 1904 ई. में वे सेंट स्टीफ़ेंस कालेज, दिल्ली में अध्यापक होकर भारत आए। दिल्ली निवास की अवधि में उनका कई नेताओं से परिचय हुआ और उन्हें भारतीय समस्याओं की जानकारी भी हुई। इससे भारत के प्रति उनकी भक्ति भरने लगे। भारत को लेकर उनहोंने कहा था, मुझे भारत में अपना ध्येय प्राप्त हो गया है और मैं एक क्षण के लिए भी इस देश के विषय में यह नहीं सोच सकता कि यह मेरी मातृभूमि से भिन्न है।
कुछ समय बाद ऐंड्रूज़ दिल्ली से इंग्लैंड लौट गए। वहाँ 30 जून, 1912 ई. को प्रसिद्ध चित्रकार रोटेंस्टाइन द्वारा अपने निवासस्थान पर आयोजित साहित्यकारों और कलाकारों की एक गोष्ठी में दीनबंधु ऐंड्रूज़ की मुलाकात विश्वकवि रवींद्रनाथ ठाकुर से हुई। दोनों ही एक दूसरे से अत्यधिक प्रभावित हुए और रवि बाबू ने ऐंड्रूज़ को शांतिनिकेतन के कार्य में सहयोग देने के लिए आमंत्रित किया जिसे उन्होंने अपनी मंतव्यसिद्धि की दृष्टि से तुरंत स्वीकार कर लिया।
शांतिनिकेतन में स्थायी निवास के पहले ऐंड्रूज़ रवींद्रनाथ के कहने से कुछ समय के लिए महात्मा गांधी के कार्य में हाथ बटाने के लिए दक्षिणी अफ्रीका चले गए। नैटाल में उन्होंने महात्मा गांधी द्वारा संचालित सत्याग्रह आंदोलन में भाग लिया। वे फ़िजी में भी रहे। फ़िजी से लौटकर वे शांतिनिकेतन चले आए और शेष जीवन उन्होंने वहीं बिताया। अंग्रेजी शासन द्वारा भारतीयों के उत्पीड़न को लेकर ऐंड्रूज़ सदा अत्यधिक व्यथित रहते थे। उन्होंने दीन दुखियों की सेवा का ्व्रात लिया। दरिद्रों का कष्ट उनके जीवन की सबसे बड़ी समस्या थी और वे आजीवन उसके समाधान के लिए प्रयत्नशील रहे। गरीब का दु:ख देखकर वे अपनी कीमती से कीमती वस्तु भी दान कर देते थे।
भारत की स्वतंत्रता के लिए भी ऐंड्रूज़ सतत कार्य करते रहे। महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए स्वतंत्रता संग्राम को कुचलने के लिए पंजाब में मार्शल ला लगाया गया था; कोई भी उक्त प्रदेश में जाने का साहस न कर सकता था। दीनबंधु ऐंड्रूज़ ने पंजाब में सबसे पहले प्रवेश किया, लेकिन जनरल डायर के सैनिकों ने उन्हें बाहर निकाल दिया। कुछ समय बाद वे पुन: पंजाब गए और अंग्रेजों द्वारा वहाँ किए गए अत्याचारों से विश्व को अवगत कराया।
दीनबंधु ऐंड्रूजज़, का निधन 69 वर्ष की अवस्था में 5 अप्रैल, 1940 को शांतिनिकेतन में हुआ। जीवन की अवसान बेला में वे महती शांति से परिपूण्र थे। गांधी उनके अंतिम दर्शन के लिए गए तो ऐंड्रूज़ ने कहा था, 'मोहन! स्वराज्य आ रहा है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ