चिकित्सा विधान
चिकित्सा विधान
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4 |
पृष्ठ संख्या | 216 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | रामप्रसाद त्रिपाठी |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | कटील नरसिंह उडुप |
चिकित्सा विधान लिखित इतिहास के प्रारंभ से इस बात का प्रमाण मिलता है कि कितने ही देशों में चिकित्साकार्य विधान के अधीन था। चीन में चाउ वंश (900 ई. पू.) के काल में चिकित्सा को मान्यता प्रदान करने के लिये राज्य की ओर से परीक्षाएँ ली जाती थीं और परीक्षोत्तीर्ण व्यक्तियों का वेतन उनकी योग्यता के अनुसार निर्णीत होता था। भारत में सुश्रुत (लगभग 500 ई. पू.) ने लिखा है कि चिकित्सा प्रारंभ करने के पूर्व राजाज्ञा प्राप्त करना आवश्यक था। यूरोप में सन् 1140 में सिसिलो द्वीप के राजा रोजर ने परीक्षोत्तीर्ण हुए बिना चिकित्सा करना अवैध घोषित कर दिया था, जिसकी अवहेलना करने पर जेल हो सकता था तथा अपराधी की संपत्ति सरकार छीन सकती थी। उसे एक शताब्दी पश्चात् उसके पश्चात् उसके पोते फ्रेडरिक द्वितीय ने चिकित्साशास्त्र के अध्यापन तथा चिकित्सा करने के संबंध में नियम बनाए।
ग्रेट ब्रिटेन में सन् 1858 में पार्लियामेंट ने चिकित्सा करने तथा चिकित्सा संबंधी ऐक्ट पास किया, जिसके अनुसार यूनाइटेड किंगडम की जेनरल कौंसिल ऑव मेडिकल एज्यूकेशन ऐंड रजिस्ट्रेशन की स्थापना की गई। इस कौंसिल ने जनसाधारण में चिकित्सा व्यवसाय करनेवालों का एक रजिस्टर तैयार किया, जिसमें उनके नाम लिखे जाते हैं तथा कौंसिल उनके लोकव्यवहार का नियंत्रण तथा पाठ्यविषयों और परीक्षाओं के क्रम का निर्धारण करती है। उसके नियमानुसार परीक्षोत्तीर्ण स्नातक का नाम किसी मान्य अस्पताल या चिकित्सा संस्था में एक या दो वर्ष तक स्थानिक नियुक्ति पर काम कर चुकने के पश्चात् चिकित्सा रजिस्टर में लिखा जाता है, जिससे उसको स्वतंत्र रूप से चिकित्सा करने की मान्यता प्राप्त होती है।
भारतवर्ष का सन् 1916 का मेडिकल डिग्री ऐक्ट - देश में कई चिकित्सा प्रणालियों होने के कारण सरकार सन् 1916 तक चिकित्सा संबंधी कोई विधान न बना सकी। सन् 1916 में 'मेडिकल डिग्रीज ऐक्ट' बनाया गया, जिससे पाश्चात्य चिकित्सा प्रणाली की डिग्रियाँ, निर्णीत काल तक चिकित्सा विषयों का अध्ययन करने और परीक्षोत्तीर्ण होने पर, प्रदान की जाती हैं। इस ऐक्ट में पाश्चात्य चिकित्सापद्धति का अर्थ है एलोपैथिक मतानुसार रोगों की चिकित्सा, शल्यकर्म तथा प्रसूति विज्ञान की क्रियाएँ। होमियापैथी तथा देशी चिकित्सा प्रणालियों की गणना उसमें नहीं की गई है।
इस ऐक्ट के अनुसार न्यायलय अवैध कृत्यों का विचार केवल राज्य सरकार द्वारा स्वीकृत तथा मेडिकल रजिस्ट्रेशन कौंसिल द्वारा चलाए गए मुकदमों पर कर सकते हैं। विधान तोड़नेवालों को जुर्माना और सजा दोनों हो सकते हैं।
सन् 1933 का इंडियन मेडिकल कौंसिल ऐक्ट- सन् 1933 में इंडियन मेडिकल कौंसिल बनने के पूर्व प्रत्येक प्रदेश में एक प्रादेशिक मेडिकल कौंसिल थी, जिसको अब स्टेट मेडिकल कौंसिल कहा जाता है। इसको रजिस्टर रखने, स्नातकों के नाम रजिस्टर में लिखने, रजिस्टर से खारिज करने तथा चिकित्साशिक्षा और परीक्षाओं का नियंत्रणकरने के अधिकार प्राप्त थे। प्रथम बार सन् 1922 में, बंबई में, और सन् 1914 में बंगाल और मद्रास प्रदेशों में, ऐसी कौंसिलें स्थापित हुई थीं।
सन् 1933 में इंडियन मेडिकल कौंसिल ऐक्ट विधान सभा द्वारा स्वीकृत हुआ। इसका विशेष उद्देश्य देश भर की चिकित्साशिक्षा के स्तर को उठाना और भिन्न भिन्न प्रदेशों की शिक्षा में समन्वय उत्पन्न करना था। किंतु चिकित्सा व्यवसायियों का रजिस्टर रखना और उनपर नियंत्रण करना इसके क्षेत्र से बाहर था। यह काम अब भी प्रादेशिक मेडिकल कौंसिलों का है।
तब से ऐक्ट में बहुत परिवर्तन हो चुका है। सन् १९५६ में जो विधान बनाया गया उसके अनुसार मेडिकल कौंसिल अपने पहले से कर्यों के अतिरिक्त 'इंडियन मेडिकल रजिस्टर' भी रखेगी, जिसमें प्रत्येक प्रदेश की कौंसिल में दर्ज किए गए नाम लिखे रहेंगे। कौंसिल का शिक्षा संबंधी कार्यक्षेत्र भी विस्तृत हो गया है। स्नातकोत्तर शिक्षाणदि का भार भी इसको सौंपा गया है। शिक्षा का पाठ्यक्रम तथा उसके स्तर की उन्नति, परीक्षाओं का उच्च स्तर तथा सब प्रदेशों में उनसे परस्पर साम्य के संबंध में विश्वविद्यालयों को परामर्श देना इस कौंंसिल का काम है। इस काम के लिये सरकार का प्रस्ताव एक 'पोस्ट ग्रेजुएट एज्युकेशन मेडिकल कमेटी' बनाने का है।
इंडियन नर्सिंग कौंसिल ऐक्ट, 1947 - प्रत्येक प्रदेश में नर्सिंग, या उपचारिका कौंसिल बन चुकी है, जो उपचारिकाओं (Nurses), स्वास्थ्यचरों (Health visitors) और धात्रियों (Mdwives) का रजिस्टर बनाकर रखती है और उनमें योग्यताप्राप्त परीक्षोत्तीर्ण व्यक्तियों के नाम दाखिल खारिज किया करती है। चिकित्साशिक्षा के समान उपचारिकाशिक्षा में भी भिन्न भिन्न प्रदेशों में बहुत भिन्नता होने के कारण सरकार को इंडियन नर्सिंग कौंसिल बनानी पड़ी है, जो विधान सभा सन् १९४७ में स्थापित की गई। यह उपचारिकाओं, धात्रियों तथा स्वास्थ्यचरों के लिये प्रशिक्षण एवं शिक्षा का स्तर निर्धारित करती है। सन् 1950 के ऐक्ट नं. 75 और सन् 1957 के ऐक्ट नं. 45 द्वारा उसमें संशोधन किए जा चुके हैं।
डेंटिस्ट ऐक्ट, 1948 - सन् 1948 से पूर्व बंगाल के अतिरिक्त किसी प्रदेश में दंतचिकित्सा के संबंध में कोई विधान नहीं था। कोई भी, शिक्षित अथवा, दंतचिकित्सा का व्यवसाय कर सकता था। यह रोगी के लिये निरापद नहीं था। इस कारण सन् 1948 में विधान सभा ने डेंटिस्ट ऐक्ट पास करके इंडियन मेडिकल काउंसिल की स्थापना की, कि वह दंतचिकित्सा शिक्षा का पाठ्यक्रम बनाकर तथा प्रशिक्षण द्वारा शिक्षा का उपयुक्त स्तर स्थापित करे। प्रादेशिक काउंसिल चिकित्सकों का रजिस्टर रखती है और उनपर व्यावहारिक यित्रण करती है। इंडियन काउंसिल शिक्षा की देखभाल तथा अन्य देशों की ऐसी हो काउंसिलों की डिग्रियां की पारस्परिक मान्यता प्राप्त करने का प्रबंध करती है।
पॉयजन्म ऐक्ट, 1919 (विष संबंधी अधिनियिम) - यह ऐक्ट 1919 में विषों को बाहर से मंगाने तथा उनके संरक्षण एवं विक्रय के नियंत्रण के लिये बनाया गया था। वह ऐक्ट के अधीन जिस पदार्थ को विष घोषित किया जायगा वही विष माना जायगा और थोक या फुटकर में केवल लाइसेंस या अनुज्ञापत्रप्राप्त व्यक्तियों द्वारा बेचा जायगा। विक्रेता उस पदार्थ का पृथक् रजिस्टर या लेखा रखेंगें जिसमें खरीददार का नाम, पदार्थ की मात्रा तथा प्राप्तिस्थान आदि सब बातों का ब्योरा रहेगा। निरीक्षक इन रजिस्टरों का निरीक्षण करते रहेंगे। विषों को बंद शीशियों या डिब्बों में लेबल लगाकर आलमारियों में सुरक्षित रखा जायग, जिसके लिये विक्रेता उत्तरदायी होगा। इन नियमों की अवहेलना दंडनीय है। किंतु इस विधान का कोई नियम सामान्यत: पशुचिकित्सकों पर वा उनके चिकित्सा व्यवसाय के अंतर्गत सद्भावना से किए हुए कार्यों पर लागू नहीं होगा।
डेंजरस ड्रग्स ऐक्ट 1930 (भयानक ओषधि अधिनियम, 1930)- जेनेवा डेंजरस ड्रग्स कंवेंशन, 1922, का अनुसमर्थन (ratification) करने और ऐसी ओषधियों द्वारा देशवासियों के स्वास्थ्य को हानि पहुँचने की आशंका से यह ऐक्ट बनाना आवश्यक हो गया। अतएव 1930 में यह ऐक्ट बनाया गया। कोकेन, मॉरफीन (अफीम), भाँग आदि ओषधियाँ इस अधिनियम में आती हैं। इन ओषधियों का दुरुपयोग रोकने के लिये उनके विक्रय पर प्रतिबंध लगाना आवश्यक है। इस ऐक्ट के अनुसार उसकी अवहेलना करने वालों को जुर्माने के साथ, या उसके बिना, कैद हो सकती है।
ड्रग्स ऐक्ट (ओषधि अधिनियम, 1940) - विदेशों से आनेवाली ओषधियों के संबंध में सरकार ने एक विशेष कमेटी नियुक्त की थी। छानबीन के पश्चात् इसकी रिपोर्ट में की गई सिफारिशों के अनुसार अन्य देशों में भारत में आनेवाली ओषधियों के निर्माण तथा उनके वितरण पर नियंत्रण के लिये यह ऐक्ट बनाया गया था। इस अधिनियम के अनुसार मनुष्य और पशुओं के शरीर के भीतर (खाने से या इंजेक्शन से या अन्य मार्गों से) पहुँचनेवाली तथा शरीर पर लगाई जानेवाली वे सभी ओषधियाँ इस ऐक्ट में आ जाती हैं, जो रोग की चिकित्सा के लिये तथा उसको कम करने या रोकने के लिये दी जाती हैं। आयुर्वेद या अन्य पद्धतियों में प्रयुक्त होनेवाली ओषधियों पर यह अधिनियम लागू नहीं है। इसके द्वारा केवल विदेशी औषधियाँ नियंत्रित होती हैं। विदेशों से ओषधियों का आयात केंद्रीय सरकार द्वारा नियंत्रित होता है, किंतु उनका निर्माण और वितरण या विक्रय प्रादेशिक सरकारों के अधीन है। एक तकनीकी परामर्शमंडल भी बनाया गया हैं, जिसके विशेषज्ञ सदस्य सरकर को तकनीकी मामलों पर परामर्श देते हैं। ओषधियों का सरकारी विश्लेषक रासायनिक जाँच करता रहता है। ओषधिनिर्माण के निरीक्षण के लिय निरीक्षक नियुक्त हैं। अधिनियम की अवहेलना दंडनीय है।
ओषधिनियंत्रण अधिनियम, 1950 - सन् 1949 में विदेशों से आनेवाली आवश्यक ओषधियों का बढ़ता हुआ मूल्य रोकने के लिये केंद्रीय सरकार की ओर से एक अध्यादेश जारी किया गया था, जिसको ओषधि अध्यादेश कहा जाता है। इसकी आवश्यकता आज भी बनी हुई है। कितने ही प्रदेशों ने अध्यादेश के स्थान पर ऐक्ट बना दिए हैं। सन् 1950 में लोकसभा ने ड्रग्स कंट्रोल ऐक्ट पास किया। इस अधिनियम का अभिप्राय ओषधियों के विक्रय, प्रदाय और वितरण पर नियंत्रण करना है। इस अधिनियम में 'ओषधि' की वही व्याख्या मानी गई है जो सन् 1940 के ऐक्ट की धारा ३ की अनुधारा बी में दी गई है। केंद्रीय सरकार किसी भी पदार्थ को इस अधिनियम के लिये 'ओषधि' घोषित कर सकती है। इस अधिनियम की अवहेलना या इसके आदेशों की पूर्ति न करना विधानानुसार दंडनीय है।
ड्रग्स ऐंड मैजिक रिमेडीज़ (ओव्जेक्शनेबिल एडवर्टिज़मेंट) ऐक्ट (ओषधि और जादू का उपचार (आपत्तिजनक विज्ञापन) अधिनियम), 1954- इस ऐक्ट का अभिप्राय उन अश्लील और आपत्तिजनक विज्ञापनों को रोकना है जो बहुत समय से, विशेषतया स्त्रियों तथा पुरुषों के गुप्तांग संबंधी रोगों, बंध्यता तथा क्लीवता की चमत्कारी ओषधियों के संबंध में छपते रहे हैं। भोली भाली जनता इनके चक्कर में फँसकर धन और स्वास्थ्य दोनो गँवाती है। यह व्यवसाय इतना बढ़ गया था कि सरकार को यह ऐक्ट बनाना पड़ा, जिसके अनुसार ऐसा विज्ञापन करनेवाले को दंड मिल सकता है।
ऊपर जो अधिनियम बताए गए हैं वे जम्मू और कश्मीर के अतिरिक्त देश के अन्य सब प्रदेशों में लागू हैं।
जनस्वास्थ्य, वैक्सिनेशन ऐक्ट, चेचक के टीके का अविनियम - बच्चों की चेचक से रक्षा करने के लिये यह ऐक्ट सन् 1880 में बनाया गया था। इसके अनुसार माता पिता को जन्म के छह मास के भीतर चेचक का टीका लगवा देना चाहिए। टीका लगाने के केंद्र नगरों में कई स्थानों पर होते हैं। टीका न लगवाने से माता पिता या अभिभावक दंड के भागी होते हैं। यदि बच्चे को पहले ही चेचक हो चुकी है और वह उससे बच गया है। तो उसको टीका लगवाना आवश्यक नहीं है।
टीके का अभिप्राय बच्चे में चेचक का हलका रोग उत्पन्न करना है, जिससे उसके शरीर में वे वस्तुएँ उत्पन्न हो जाती हैं जो उसकी रोग से बचाए रखती हैं। जब से टीके का आविष्कार हुआ है तब से संसार भर में यह रोग बहुत हो गया है और मृत्युसंख्या विशेषतया कम हो गई है।
चिकित्सा संबंधी विधानों का ऊपर संक्षेप से उल्लेख किया गया है। हमारा देश भी आधुनिक उन्नति की ओर अग्रसर है। ज्यों ज्यों आयात निर्यात बढ़ेगा और अन्य देशों से आना जाना अधिक होगा त्यों त्यों हमको और भी विधान बनाने पड़ेगें।[१]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गोरख नाथ चतुर्वेदी