जमशेद जी टाटा
जमशेद जी टाटा
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5 |
पृष्ठ संख्या | 141-142 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | फूलदेवसहाय वर्मा |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1965 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
जमशेद जी टाटा स्वाधीनता संग्राम में दादाभाई नौरोजी के प्रबुद्ध समर्थक और उनके समकालीन तथा अपने युग के सर्वाधिक ख्यातिप्राप्त पूँजीपति एवं उद्योग जमशेदजी टाटा महान् राष्ट्रवादी भी थे। दादा भाई से भी अधिक सजीव और प्रभावकारी ढंग से उन्होंने अपने देशवासियों की आर्थिक पराधीनता का बोध कराया। वे विशाल दृष्टिकोंण और उच्च आदर्शों की प्रतिभावाले व्यक्ति थे। उनमें दृढ़ता और अपूर्व सूझबूझ थी। इस प्रकार आदर्शवादी होने के साथ-साथ यथार्थवादी भी होने के कारण वे जानते थे कि प्रगति और सफलता के स्वप्न को किस प्रकर धैर्य के साथ अन्वेषण और परिशीलन द्वारा सत्य में परिणत किया जा सकता है।
युगांतरकारी अन्वेषणों में उनकी सूझबूझ, मौलिकता; वाणिज्य-उद्योग के क्षेत्र में उनके साहस और सुनियोजित कार्यों तथा समयानुकूल यथार्थवादी योजनाओं से संसार इतना चकित था कि उनके पूँजीपति और उद्योगपति रूप के पीछे विद्यमान उनकी राष्ट्रीयता और देशभक्ति की कल्पना बहुत थोड़े ही लोग कर सकते थे। तब 'स्वदेशी' और 'राष्ट्रीयतावाद' के शब्द कोरी देशभक्ति भावना की अभिव्यक्ति मात्र तथा राजनीतिज्ञों और बड़े व्यापारियों के स्वप्न थे, सबसे पहले स्वदेशी को सिद्धांत का रूप देने, देश के प्रच्छन्न प्राकृत साधनों की खोज का पाठ पढ़ाने और वैज्ञानिक अनुसंधान की प्रेरणा देनेवाले टाटा ही थे। बड़ी बड़ी औद्योगिक योजनाओं से ही संतुष्ट न होकर उन्होंने भारतीय जहाजरानी की ओर बड़े साहस से कदम बढ़ाया, किंतु अनेक शक्तिशाली प्रतिद्वंद्वियों के कारण यह उद्योग सफल न हो सका।
टाटा और दादा भाई दोनें का यह दृढ़ विचार था कि देश के खनिज साधनों की खोज होनी चाहिए, जिनमें देश के लोग ही कार्य करें और उसमें विदेशी पूँजी न लगे, ताकि प्रकृतिप्रदत संपत्ति देश में ही रह सके। इसीलिए वे स्वदेशी उद्योग में विदेशी पूँजी विनियोग और उसके फलस्वरूप संपत्ति के विदेशिओं के हाथ में जाने के विरुद्ध थे। किंतु जब टाटा ने अपने आइरन और स्टील प्रोजेक्ट के लिये भारतीय पूंजी जुटा सकने की आशा नहीं देखी, तब अपनी इच्छा के विरुद्ध उन्हें विदेशी पूँजीपतियों का मुँह ताकना पड़ा। इसपर दादा भाई ने टाटा को इंग्लैंड से पत्र लिखकर ऐसा न करने की प्रार्थना की। टाटा ने दादा भाई के पत्र का उत्तर देते हुए लिखा मैं बड़ी खुशी से आपकी सलाह मानने को तैयार हूँ , बशर्तें भारत तथा उसके राज्यों में अपेक्षित पूँजी उसी व्याज पर उपलब्ध हो सके जो इंग्लैंड में देय है। मैं अब यह आशा करने लगा हूँ कि भारत में ही सारी आवश्यक पूँजी का एकत्रित करना शायद असंभव न होगा।
दुर्भाग्यवश उद्योग व्यवसाय का यह विचक्षण और चतुर नायक अपनी योजनाओं को प्रयोगात्मक कसौटी पर देखने के लिए जीवित नहीं रह सका। किंतु जब योजना कार्यान्वित हुई, और जनता से पूँजी माँगी गई (अगस्त, १९०७), बंबई स्थित टाटा कार्यालय हिस्से खरीदनेवालों की भीड़ से घिर गया। तीन सप्ताह समाप्त होते होते अपेक्षित पूँजी का एक एक रुपया भारतीय विनियोक्ताओं ने जमा कर दिया। राष्ट्रनिर्माण के अनेक कार्य टाटा ने किए, जिनमें सर्वाधिक महत्व टाटा की उस सेवा का है, जिसमें उन्होंने उदार दानशीलता का उदाहरण प्रस्तुत किया। भारत के पुनर्निर्माण की उनकी आशाएँ शिक्षा पर आधारित थीं। उन्होंने विश्वविद्यालय के स्नातकों को उच्च अध्ययन के हेतु छात्रवृतियाँ देने के लिए एक ट्रस्ट स्थापित किया। छात्रों के स्वाभिमान को महत्व देते हुए उसमें यह व्यवस्था की गई थी कि छात्रवृत्ति का रुपया वे काम में लग जाने या नौकरी प्राप्त करने के पश्चात् किश्तों द्वारा लौटा दें।
अपनी मृत्यु के कुछ दिन पूर्व टाटा नेक शोधकार्य चलाने के लिए एक विश्वविद्यालय स्थापित करने की योजना घोषित की थी। इसके लिए उन्होंने स्वयं ३० लाख रुपए देने का वचन दिया था। किंतु एक मैसूर राज्य को छोड़कर न भारत सरकार ने और न राज्यों ने न जनता ने ही इस महान् प्रस्ताव में सहयोग दिया। इसलिए स्नातकोत्तर विश्वविद्यालय स्थापित करने की योजना को घटाकर केवल एक शोध संस्था की स्थापना से ही संतोष करना पड़ा।
खनिजों आदि के अन्वेषण की यह तथा अन्य बड़ी योजनाएँ अभी पूरी भी नहीं हुई थीं कि उनके ख्यातिपूर्ण जीवन का, आशा के प्रतिकूल ६५ वर्ष की अवस्था में ही अंत हो गया। उनके बाद उनके पुत्रों, सर दोराब और सर रतन ने विविध योजनाओं को पूरा करके और कारबार बढ़ाकर टाटा परिवार को प्रतिष्ठा ही नहीं अपितु विभिन्न क्षेत्रों में सहायता और दान की निधि का भी विस्तार किया।
अन्य पारसी महान् व्यवसायियों तथा उद्योगपतियों में जो नाम लिए जा सकते हैं, वे हैं-सर दीनश पेटिट, बोमनजी दीनशा पेटिट, नौशेरवाँ जी पेटिट, कावसजी अदनवाला, आर्दशिर हरमुस जी वाडिया, कावसजी जहाँगीर रेडीमनी (बर्नेट) इनके पुत्र सर कावस जी (द्वितीय बर्नेट,) एन. एम. वाडिया, नौशेरवाँ वाडिया इनके पुत्र सर नेस और खुसरो वाडिया, जो सभी सामुदायिक और सार्वभौमिक दानशीलता के लिए प्रसिद्ध हैं।
औद्योगिक विकास में योगदान
भारतीय औद्योगिक क्षेत्र में जमशेदजी का योग असाधारण महत्व रखता है। इन्होंने भारतीय औद्योगिक विकास का मार्ग ऐसे समय में प्रशस्त किया जब उस दिशा में केबल यूरोपीय, विशेषत: अंग्रेज, ही कुशल समझे जाते थे। इंग्लैड की प्रथम यात्रा से लौटकर इन्होंने चिंचपोकली के एक तेल मिल को कताई बुनाई मिल में परिवर्तित कर औद्योगिक जीवन का सूत्रपात किया। किंतु अपनी इस सफलता से उन्हें पूर्ण संतोष न मिला। पुन: इंग्लैंड की यात्रा की। वहाँ लंकाशायर के से बारीक वस्त्र की उत्पादनविधि और उसके लिए उपयुक्त जलवायु का अध्ययन किया। इसके लिए उन्होंने नागपुर को चुना और वहाँ वातानुकूलित सूत मिलों की स्थापना की। इस तरह लंकाशायर का जलवायु कृत्रिम साधनों से नागपुर की मिलों में उपस्थित कर दिया।
औद्योगिक विकास कार्यों में जमशेदजी यहीं नहीं रुके। देश के सफल औद्योगीकरण के लिए उन्होंने इस्पात कारखानों की स्थापना की महत्वपूर्ण योजना बनाई। ऐसे स्थानों की खोज की जहाँ लोहे की खदानों के साथ कोयला और पानी सुविधा से प्राप्त हो सके। अंतत: आपने बिहार के जंगलों में सिंहभूमि जिले में वह स्थान (इस्पात की दृष्टि से बहुत ही उपयुक्त) खोज निकाला।
जमशेद जी की अन्य बड़ी उल्लेखनीय योजनाओं में पश्चिमी घाटों के तीव्र धाराप्रपातों से बिजली उत्पन्न करनेवाला विशाल उद्योग है जिसकी नींव ८ फरवरी, १९११ को लानौली में गवर्नर द्वारा रखी गई। इससे बंबई की समूची विद्युत् आवश्यकताओं की पूर्ति होने लगी।
इन विशाल योजनाओं को कार्यान्वित करने के साथ ही टाटा ने पर्यटकों की सुविधा के लिए बंबई में ताजमहल होटल खड़ा किया जो पूरे एशिया में अपने ढंग का अकेला है:
सफल औद्योगिक और व्यापारी होने के अतिरिक्त सर जमशेदजी उदार चित्त के व्यक्ति थे। वे औद्योगिक क्रांति के अभिशाप से परिचित थे और उसके कुपरिणामों से अपने देशवासियों, विशेषत: मिल मजदूरों को बचाना चाहते थे। इसी उद्देश्य से उन्होंने मिलों की चहारदीवारी के बाहर उनके लिए पुस्तकालयों, पार्कों, आदि की व्यवस्था के साथ-साथ दवा आदि की सुविधा भी उन्हें प्रदान की। (क. ना.)
२. टाटा, सर दोराबजी जमशेदजी (१८५९-१९३३ ई०) ये जमशेदजी नौसरवान जी के ज्येष्ठ पुत्र थे जो २९ अगस्त १८५९ ई. को बंबई में जन्मे। माँ का नाम हीराबाई था। १८७५ ई. में बंबई प्रिपेटरी स्कूल में पढ़ने के उपरांत इन्हें इंग्लैंड भेजा गया जहाँ दो वर्ष वाद ये कैंब्रिज के गोनविल और कायस कालेज में भरती हुए। १८७९ ई. में बंबई लौटे और तीन वर्ष बाद बंबई विश्वविद्यालय से बी. ए. की उपाधि प्राप्त की।
अपने योग्य और अनुभवी पिता के निर्देशन में आपने भारतीय उद्योग और व्यापार का व्यापक अनुभव प्राप्त किया। पिता की मृत्यु के बाद आप उनके अधूरे स्वप्नों को पूरा करने में जुट गए। पिता की योजनाओं के अनुसार विहार में इस्पात का भारी कारखाना स्थापित किया और उसका बड़े पैमाने पर विस्तार भी किया।१९४५ ई. तक वह भारत में अपने ढंग का सबसे बड़ा इस्पात का कारखाना बन गया जिसमें १,२०,००० स्त्री और पुरुष काम करते थे और जिसकी पूँजी ५४,०००,००० पौंड थी।
सर दोराब जी ने एक ओर जहाँ भारत में औद्योगिक विकास के निमित्त पिता द्वारा सोची अनेक योजनाओं को कार्यान्वित किया, वहीं दूसरी ओर समाजसेवा के भी कार्य किए। पत्नी की मृत्य के बाद 'लेडी टाटा मेमोरियल ट्रस्ट' की स्थापना की जिसका उद्देश्य रक्त संबंधी रोगों के अनुसंधान ओर अध्ययन में सहायता करना था। शिक्षा के प्रति भी इनका दृष्टिकोण बड़ा उदार था। जीवन के अंतिम वर्ष में इन्होंने अपनी सारी संपत्ति अपने नाम से स्थाति ट्रस्ट को सार्वजनिक कार्यों के लिये सौंप दी। यह निधि १९४५ में अनुमानत: २,०००,००० पौंड थी जिसमें से आठ लाख पौंड की धनराशि विभिन्न दान कार्यो में तथा कैंसर के इलाज के लिए स्थापित टाटा मेमोरियल हास्पिटल, टाटा इंस्टिट््यटू ऑव सोशल साइंसेज और टाटा इंस्टिट्यूट ऑव फंडामेंटल रिसर्च के कार्यों में खर्च की जा चुकी है।
अपनी सेवाओं के लिए इन्हें १९१० ई. में 'नाइट' की उपाधि भी मिली। १९१५ में ये इंडियन इंडस्ट्रियल कान्फरेंस के अध्यक्ष हुए, तथा १९१८ ई. तक इंडियन इंडस्ट्रियल कमीशन के सदस्य रहे।
इनका विवाह १८९८ में मेहरबाई से हुआ था जिनसे कोई संतान न हुई। उपर्युक्त ट्रस्ट की स्थापना के बाद ये अप्रैल, १९३२ में यूरोप गए। ३ जून, १९३२ को किसिंग्रन में इनकी मत्यु हुई। इनका अवशेष इंगलैंड ले जाया गया जहाँ ्व्राकवुड के पारसी कब्रगाह में पत्नी की बगल में वह दफना दिया गया।
टीका टिप्पणी और संदर्भ