जयद्रथ
जयद्रथ
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| पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4 |
| पृष्ठ संख्या | 392 |
| भाषा | हिन्दी देवनागरी |
| संपादक | राम प्रसाद त्रिपाठी |
| प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
| मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
| संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
| उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
| कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
| लेख सम्पादक | रामांकर भट्टाचार्य |
जयद्रथ ये सिंधुदेश के राजा थे। महाभारत के वन पर्व में इनको 'सिंधुसौवीरपति' कहा गया है। इनके पिता का नाम वृद्धक्षत्र और पत्नी का नाम धृतराष्ट्रकन्या दु:शला था [१]। जब पांडवों के साथ द्रौपदी वन में रहती थी, तब जयद्रथ ने द्रौपदी के अपरहण की चेष्टा की थी, पर पांडवों के द्वारा ये स्वयं हो पराजित हुए [२]। बाद में इस अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए उन्होंने शिव की पूजा की और शिव से अर्जुनातिरिक्त अन्य पांडवों को जीतने के लिए (एक दिन के लिए ही) वर प्राप्त किया। कुरुक्षेत्र युद्ध में दुर्योधन के पक्ष में रहकर इन्होंने युद्ध किया। अर्जुन ने इनका वध किया था [३]। इनके काटे हुए सिर को अर्जुन ने इनके तपस्वी पिता की गोद में गिराया था, जिससे उनके सिर के सौ टुकड़े हो गए थे। महाभारत में इनको अक्षौहिणीपति कहा गया है। इनका ध्वज वराहचिह्नयुक्त था [४]
पुराणों में भी जयद्रथ का प्रसंग है। उनमें उपर्युक्त जयद्रथ के अतिरिक्त और भी तीन जयद्रथों का उल्लेख है [५]। ऐंशेट इंडियन हिस्टॉरिकल ट्रैडिशन ग्रंथ में दो पुराणोक्त जयद्रथों पर विचार किया गया है।